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लडखडा जाते हैं । जैन धर्म की एक बाद एक होने वाली शाखा प्रशाखाओं के मूल में यही सत्तालोलुपता और अधिकार लिप्सा रही है । आचार्य आदि पदवियों के लिए कितना कलह और कितनी विडम्बना होती है यह किसी से छुपा हुआ नहीं हैं। हमारे चरितनायकजी उपाधि को व्योधि ही मानते ये। जिसके जीवन का स्तर वास्तव में ऊंचा उठ जाता है- जो अपनी आत्मा को ही ऊपर उठा लेता है, वह उपाधि लेकर क्या करेगा ? चरितनायकजी का व्यक्तित्व स्वतः इतना उच्चतर था कि वह . उपाधि से परे पहुंच चुका था । उपाधियाँ उनके जीवन की उंचाई तक पहुँच भी नहीं सकती थी तो उनकी क्या महत्ता बढा सकती है?
- हमारे चरितनायकजी ने पूज्य श्री के द्वारा दी जानेवाली युवाचार्य की पदवी को लेना स्वीकार नहीं किया । मुनि श्री की इस अस्वीकृति के मूल में शायद एक कारण यह भी था कि यह उपाधि मेरे आध्यात्मिक जीवन में व्याधि उत्पन्न कर सकती है। मुनि श्री ने पदवी अस्वीकार करके साधु समूह के : सामने एक सुन्दर आदर्श उपस्थित किया ।
मुनि श्री घासीलालजी महाराज साहब के युवाचार्य बनने से इन्कार होने पर पं. मुनि श्री गणेशी लालबी महाराज को युवाचार्य बन जाने ओ कहा गया । कुछ आना कानी के बाद पं. मुनि श्री गणेशोलालजी महाराज ने युवाचार्य बनना स्वीकार किया ।
बम्बई के डाक्टर मूलगांव कर ने पूज्य श्री का अच्छा निदान कर उनका ऑपरेशन किया । सुयोग पथ्य से पूज्य श्री का स्वास्थ्य उत्तरोत्तर स्वस्थ होने लगा । और कुछ महिनों के बाद पूज्यश्री पूर्ण स्वस्थ हो जाने पर युवाचार्य पद को अब आवश्यकता न रही । उन्होंने गणेशीलालजी महाराज को ... अपना उत्तराधिकारी बनानेवाला वह लेख चाक कर दिया और उसकी घोषणा एक परिपत्र द्वारा इस .. प्रकार कर दी
___ॐ सिद्धम मेरी बिमारी की हालत में संवत १९८१ के जलगांव के चौमासे में मैं मुनि घासीलालजी को पूज्य पदवी देता था परन्तु उन्होंने पूज्य पदवी नहीं लेने की प्रतिज्ञा होने से स्वीकार नहीं करी इसलिए गणेशीलालजी को देनी मुकरर की थी । परन्तु मेरी तंदुरस्ती अच्छी हो जाने से वह परिस्थिति नहीं रही । इसलिए वह लेख चॉक कर दिया विधिसर है । संवत १९८६ मिति पौष सुद ११ बिकानेर
दः जवाहरलाल का चातुर्मास काल में पूज्य आचार्य श्री रुग्णावस्था में चरितनायकजी ने बडी लगन के साथ सेवा की । चातुर्मास समाप्त के बाद शारीरिक दुर्बलता के कारण पूज्य श्री जलगांव में ही दोमास तक बिराजित रहे । उसके बाद आप जलगांव से भुसावल आदि आसपास के क्षेत्र में ही विहार करने लगे।
___ चातुर्मास के बाद पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज के पास माघ शुक्ला ५ (वसन्त पञ्चमी) के दिन निम्बाहेडा के निवासी समीरमल नामके नौ वर्षीय बालक ने अपनी माता से आज्ञा प्राप्त कर दीक्षा ग्रहण की। पूज्य श्री ने दीक्षा पाठ पढाया और केशलुंचन किया । पश्चात बालमुनि व नवदीक्षित समीर मुनि को पं. मुनि श्री घासीलालजी म. ने उठाकर अपनी गोद में बैठाया । १९८२ का २४ वाँ चातुर्मास बेलापुर में
चरितनायकजी श्री घासीलालजी महाराज आचार्य श्री की आज्ञा प्राप्त कर महाराष्ट्र के विविध क्षेत्रों पालन करने लगे। मनि जीवन एक कठिन साधना का जीवन है। निर्दोष संयम पालन करते किसी मुनि का सब जगह विहार कर सकना संभव नहीं हैं, नंगे पैर नंगे सिर, पैदल विहार निर्दोष
दोष सयम पालन करते हुए
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