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संघ में रखा । संघ ने गुरुदेव के आदेश को शिरोधार्य कर गांव के समस्त कसाईयों को बुलवा कर एक दिन जीव हिंसा न करने के लिए कहा । कसाईयों ने श्री संघ की बात को अस्वीकार कर दि । तब श्रावकों ने उस दिनका हर्जाना देने का भी प्रस्ताव रखा किन्तु कसाईयों ने संघ की बात नहीं मानी । यह बात जब, सरकस. के मालिक सेठ परशरामजी को मालूम हुई तो उन्होंने समस्त कसाईयों को एक दिन कसाईखाना बंद रखने के लिए समझाया । तपस्वीजी के तप के प्रभाव से कसाईयों ने बिना हर्जाना लिये ही एक दिन के लिए हिंसा बन्द रखी । उस दिन कसाईयों ने भी बड़ी संख्या में महाराज श्री का प्रवचन सुना । आसपास के गांव वाले बडी संख्या में महाराज श्री के दर्शन के लिए उपस्थित हुए । श्रावकों ने अहाईयां, दया पौषध उपवास तथा अन्य त्याग प्रत्याख्यान अच्छी संख्या में किये । विश्वशान्ति के लिए प्रार्थना की। तपस्वीजी का तपमहोत्सव बडे आनन्द और उत्साह के साथ सम्पन्न हुआ ।
कसाईखाने बन्द होने से कुछ मुसलमान भाई महाराज श्री से बडे रुष्ट होगये और एक दल बनाकर महाराज श्री की सेवामें उपस्थित होकर धार्मिक वाद विवाद करने लगे । महाराज श्री ने उन्हें अनेक ढंग से समझाया किन्तु उन्हे तो किसी तरह का झगडा ही करना था । अन्तमें महाराज श्री ने बुद्धि से काम लिया । उस मण्डली में एक मुल्ला जो अपने आपको बडा बुद्धिमान मानता था । वह उस मण्डली का अगुआ बनकर महाराज श्री से विवाद करने लगा । महाराज श्री ने उसे कहा-तुम सरफनो (फारसी व्याकरण) जानते हो । सरफनो का नाम सुनते ही वह घबरा गया । उसने अपने जीवन में यह एक नया ही नाम सुना था। महाराज श्री ने उसे कहा-सरफनो यह फारसी भाषा का व्याकरण है । सरफनों को जाने बिना किसी फारसी शेर का सही मायना नहीं जान सकता । मुल्लासाहब बिना कुछ कहे ही खडे हो गये और चल दिये । उनके साथ अन्य भाई भी एक एक करके खिसक गये । जो दो चार भाई रह गये थे। महाराज श्री ने उनको एक भावात्मक उर्दू का शेर सुनाया और इसपर बडा सुन्दर विवेचन किया । उर्दू शेर का विवेचन सुन कर उपस्थित मुसलमान भाई बडे प्रसन्न हुए । और अपनी की हुई गलती की बार बार माफी मांगने लगे।
चातुर्मास के बीच हिन्दू, मुसलमान बडी संख्या में उपस्थित होकर महाराज श्री का प्रवचन सुनते थे । इस चातुर्मास के बीच अनेक परोपकार के कार्य हुए सैकडों लोगों ने मद्य, मांस जूआ जैसे दुर्व्यसनों का त्याग किया । व्याख्यान में भी लोगों को बडा आनन्द आता था । स्थानीय संघ ने भी अच्छा धर्मध्यान किया और अपने जीवन को धन्य बनाया । इस प्रकार तासगांव का चातुर्मासकाल शान्ति-मय और उत्साहपूर्ण वातावरण में व्यतीत हुआ ।
तासगांव का चातुर्माम पूर्ण कर आपश्री ने विहार कर दिया । मुनि मण्डली के साथ दक्षिण प्रान्त में विचर कर धर्मप्रचार करने लगे। सं १९८१ का तेईसवां चातुर्मास जलगांव में
पूज्य आचार्य प्रवर श्री जवाहरलालजी महाराज ने सेठ श्री लक्ष्मणदासजी श्रीश्रीमाल के अत्याग्रह से एवं स्थानीय संघ की विनती पर जलगांव में ही इस वर्ष का चातुर्मास करने का निश्चय किया । मालवप्रान्त को पावन करते हुए पूज्य आचार्य श्री चातुमासार्थ जलगांव पधार गये । पूज्य अचार्य श्री की आज्ञा से दक्षिण प्रान्त के विविध ग्राम नगरों में धर्मोपदेश देते हुए चरितनायक पं० श्री घासीलालजी महाराज भी चातुमासार्थ जलगांव पधार गये । आचार्य श्री के साथ इस वर्ष १७ मुनियों ने चातुर्मास किया था । ७ साध्वियों का भी यहो चातुर्मास था । कुल २४ ठाने साधुसाध्वियों के विराजने से जलगांव में धर्मध्यान की बाद सी आ गई थी । संघ में अपूर्व उत्साह दृष्टगोचर होता था । इस चातुर्मास में श्री विनोबा भावे,
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