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है वह परमात्मा बन चुका है वह आत्मा फिर संसार में कैसे आ सकता है ? बीज तभी उत्पन्न हो सकता है, जब तक की वह भुना नहीं है, निर्जीव नहीं हुआ है । जब बीज एक बार भुन गया, तो फिर कभी तीनकाल में भी उत्पन्न नहीं हो सकता । जन्म-मरण रूप अंकुर का बीज कर्म है । उसे तपश्चरण आदि कर्म क्रियाओं से जला दिया तो बस फिर वह सदा काल के लिए अजन्मा हो गया। आचार्य श्रीने एक जगह कहा
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कमें बीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ॥
कहने का तात्पर्य यह है कि जहां जन्म है वहां मरण अवश्यं भावी है । जहाँ जन्म मरण है वहां ईश्वरत्व कैसे संभव है ? अतः ईश्वर का पुनर्जन्म नही यह मान्यता तर्क संगत प्रतीत होती है ।
महाराजा, जन्म मरण रहित ईश्वर इस विशाल विश्व का निर्माण कैसे कर सकता है ?
महाराज श्री राजन् ! ईश्वर परमात्मा है मगर वह जगत का सृष्टा या नियंता नहीं । वह पूर्ण अवस्था में पहुँचा हुआ होने के कारण वह सृष्टि निर्माण के प्रपञ्च में नहीं पडता ।
महाराजा, यदि परमात्मा विश्व का निर्माण नहीं करता है तो इस संसार को निर्माण या विनाश कौन करता है ?
महाराजश्री राजन् ! जैन दृष्टि के अनुसार यह घराचर विश्व जड और जीव का चेतन और अचे तन का विविध परिणाम मात्र है । ये दो तत्त्व ही समग्र विश्व के मूलाधार हैं । इन दोनों का पारस्परिक प्रभाव ही विश्व का रूप है । ये दोनों तत्त्व अनादि और अनन्त हैं । न कभी इनकी आदि हुई है और न कभी इनका निरन्वय विनाश हो होगा । इसलिए यह विश्व-प्रवाह अनादि अनन्त है । यह पहले भी था, अब भी है और भविष्य में भी रहेगा । ऐसा कोई अतीत कालीन क्षण नहीं था जिसमें विश्व का अस्तित्व न हो और ऐसा कोई भावी क्षण नहीं होगा जिसमें इस विश्व का अस्तित्व न रहेगा । यह सदा से है और सदा हि रहेगा । यद्यपि यह विश्व प्रवाह की अपेक्षा अनादि अनन्त है और शाश्वत है तदपि यह कूटस्थ नित्य नहीं है। इस में प्रतिक्षण विविध परिवर्तन होते रहते हैं। विश्व का कोई भी पदार्थ कभी एकसी अवस्था में नही रह सकता है । उसमें प्रतिपल परिवर्तन होता ही रहता है । इसलिए यह विश्व परिणामी है । जैन दर्शन की सह मान्यता है कि कोई भी पदार्थ निरन्व नष्ट नही होता और सर्वथा नवीन भी उत्पन्न नहीं होता किन्तु उसका परिणमन होता रहता है अर्थात् उसकी अवस्था में परिवर्तन होता रहता है । जड और चेतन की स्वतंत्र और प्रारस्परिक प्रवृत्ति से संसार का व्यवस्थित होता रहता है । इसमें ईश्वर के संचालन की या उसके निर्माण की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती है । जीव और अजीव के सहयोग से ही इस समस्त संसार का संचालन होता है। गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को यही कहते हैंन कतृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोज स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ गीता ५-१४॥
ईश्वर न संसार के कर्तव्य का रचयिता है, न कर्मों का रचयिता है और न वह कर्म फल के संयोग की ही रचना करता है । यह सब तो प्रकृति का अपना स्वभाव ही वर्तरहा है ।
महाराजा, ग्रहों नक्षत्रों से सुशोभित इस अनन्त विश्व का कोई निर्माता अवश्य होना चाहिए । इस निर्माणकर्ता की आज्ञा से ही नियमित रुप से सूर्य चन्द्र का उदय और अस्त होता है इसकी आज्ञा को मानकर ही वायु निरन्तर बहती रहती है, वर्षा होतो है पशु, पक्षी, तरु लता, जीव, जन्तु नव जीवन पाते हैं और समय समय पर शीत, उष्णता आदि ऋतुएं अपना प्रभाव प्रकट करती है। सृष्टि के आंगन में जो नियमबद्धता दृष्टि गोचर होती है, जो व्यवस्था दिखाई देती है और जो वैचित्र्य एवं नवीनता मालूम
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