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खूले मुह उसका वांचन करेंगे तो हमारा थूक उस पर अवश्य गिरेगा। अपवित्र थूक के धर्म शास्त्र पर गिरने से हम उसकी पवित्रता की रक्षा नहीं कर सकते हैं । धर्मशास्त्र की पवित्रता की रक्षा के लिए और उसके अविनय से बचने के लिए हम मुख पर वस्त्र धारण करते हैं ।
महाराजा क्या आप स्नान करते हैं ? महाराज श्री ने कहा राजन् ! स्नान का अर्थ है शुद्वि. करण । शुद्धि करण दो प्रकार का है । एक शारीरिक और दूसरा मानसिक । जैनधर्म आध्यात्मिक क्षेत्र में शारीरिक शुद्धि की अपेक्षा मानसिक शुद्धि को विशेष महत्व देता है। केवल जैनधर्म ने ही नहीं किन्तु अन्य धर्म के महर्षियों ने भी मानसिक पवित्रता पर भार दिया है महर्षि अगस्त्य कहते हैं
__ध्यान पूते ज्ञान जले रागद्वेष मलापहे । यः स्नाति मानसे तीर्थे स याति परमां गत्ति ॥ अर्थात् ध्यान के द्वारा पवित्र तथा ज्ञान रूपी जल से भरे हुए, राग-द्वेष रूप मल को दूर करने निस तीर्थ में जो मनुष्य स्नान करता है वह परमगति मोक्ष को प्राप्त करता है। मनुस्मृति में भी
कहा है
सर्वेषा मेव शौचानामर्थशोचं परं स्मृतम् । योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारि शुचिः शुचिः ।।
संसार के समस्त शौचों (शुद्धियों) में अर्थ शौच (न्याय से उपार्जित धन) ही श्रेष्ठ शौच (उत्कृष्ट शुद्धि) है । जो अर्थ शौच से युक्त है वही वस्तुतः शुद्ध है । मिट्टी कौर पानी की शुद्धि वस्तुतः कोई शुद्धि नहीं है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि शरीर को लाखबार धोने पर भी वह सदा अपवित्र ही रहता है ।अतः पानी ढोलकर नहाने में हम धर्म नहीं मानते । यदि पानी ढोलकर नहाने में हि व्यक्ति यदि धर्मात्मा हो जाय तो पानी में रहने वाले प्राणी सबसे बडे धर्मात्मा होंगे।
___ दूसरी बात जैनमुनि आजीवन ब्रह्मचारी होते हैं । ब्रह्मचर्य की साधना के लिए और उसकी पूर्णता के लिए शास्त्रकारो ने कुछ साधन एवं उपाय बताये हैं, उनमें शरीर संस्कार श्रृंगार न करने का भी एक विधान है। शास्त्र में कहा है- ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले साधक को शरीर शृङ्गार एवं स्नानादि का सर्वथा त्याग करना चाहिए | इसी विधान के अनुसार हम जलस्नान नहीं करते हैं। महाराज श्री ! आप लोग ईश्वर को मानते हैं ? महाराज श्री, हा, हम लोग ईश्वर को मानते हैं ।
महाराज, क्या आपका ईश्वर जन्म लेता है ?
प. महाराज श्री जैन धर्म के अनुसार जो आत्मा राग द्वेष से सर्वथा रहित हो, जन्म मरण से सर्वथा अलग हो, सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो, और जो अजर, अमर, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मा है, वह परमात्मा ही इश्वर है । प्रत्येक आत्मा में परमात्म तत्त्व रहा हुआ है । प्रत्येक आत्मा राग द्वेष को नष्ट करके वीत. राग भाव की उपासना के द्वारा परमात्मा बन सकता है । जैन धर्म आत्मा और परमात्मा में मौलिक भेट नहीं मानता है तात्विक दृष्टि से प्रत्येक जीव में ईश्वर भाव है जो मुक्ति के समय प्रकट होता है । जिस आत्मा ने राग-द्वेष की ग्रन्थी का सर्वथा छेदन कर दिया और जो कर्म के बन्धन से मुक्त हो गया है ऐसा मुक्तात्मा ही ईश्वर है । और वही उपास्य है । मुक्तात्मा के अतिरिक्त ओर कोई स्वतंत्र ईश्वर शक्ति है यह जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता है।
मुक्तजीव-ईश्वर पुनर्जन्मा नहीं है । विश्व का प्रत्येक नियम कार्य कारण रूप में सम्बन्ध है । बिना कारण के कभी कार्य नहीं हो सकता, बीज होगा तभी अंकुर हो सकता है । धागा होगा तभी वस्त्र हो सकता है । आवागमन का व जन्म मरण पाने का कारण कर्म है. और वे मोक्ष अवस्था में रहते नहीं । अतः कोई भी विचारशील सज्जन समझ सकता है कि जो आत्मा कर्म मल से मुक्त होकर मोक्ष पा चुका
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