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________________ १०६ आचार्यपद में रहै । वीर सं. १५६ में ९० वर्ष की आयु पूर्ण कर आप स्वर्गवासी हुए । ७ वें पट्टधर आर्य भद्रबाहु भगवान महावीर के सातवें पट्टधर आचार्य । एवं आर्य यशोभद्र के शिष्य । सम्भूति विजय के पश्चात् आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित बुए। आप प्राचीन गौत्रीय ब्राह्मण थे । आपका जन्म प्रतिष्ठानपुरका माना जाता हैं । वराहमिहिरसंहिता का निर्माता वराहमिहिर आपका छोटा भाई था । वराहमिहिर पहले साधु था । आचार्य पद न मिलने से वह गृहस्थ हो गया और भद्रबाहु की प्रतिद्वन्दता करने लगा । विद्वानों का मत कि वर्तमान में उपलब्ध वराहमिहिर संहिता भद्रबाहु के समय की नहीं है । भद्रबाहु प्रभव से प्रारंभ होनेवाली श्रुतकेवली परम्परा में पंचम श्रुत केवली है । चतुर्दश पूर्वघर है दशाश्रुतस्कन्धचूर्णी में आप को दशाश्रुत बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्र का निर्माता बताया है । कल्पसूत्र के रचनाकार भी आपही थे । उवसग्गहर स्त्रोत्र के कर्ता भी आप ही माने जाते हैं सपादलक्ष सवालक्ष गाथा में प्राकृत में वसुदेव चरित्र की भी आप ने रचना की थी । जो इस समय अनुपलब्ध । अनुश्रुति है कि भद्रबाहु ने प्राकृत भाषा में भद्रबाहुसंहिता नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ भी लिखा था जिसके आधार पर उत्तरकालिन द्वितिय भद्रबाहु ने संस्कृत में “भद्रबाहु संहिता" का निर्माण किया था । पाटलिपुत्र में अगामों की प्रथम वांचना आप के समय में ही पूर्ण हुई थी । उस समय में १२ वर्ष का भयंकर दुष्काल पडा । साधु संघ समुद्र तट पर चला गया | दुष्काल के समाप्त होने पर साधु संघ पाटलिपुत्र में एकत्रहुआ और एकादश अंगों का व्यवस्थित रूप से संकलन किया । दुष्कालका समय वीर सं. १५४ के आसपास बताते हैं क्योंकि इसी समय नन्द साम्राज्य का उन्मूलन होकर मौर्यचन्द्र गुप्त का साम्राज्य स्थापित हुआ । दुष्काल की समाप्ति पर वीर सं. १६० के लगभग पाटलिपुत्र में श्रमणसंघ की परिषद हुई । स्थूलभद्र के नेतृत्व में इस परिषद ने यथास्मृति १९ अंगों का संकलन तो कर लिया परन्तु बारहवें दृष्टिवाद के ज्ञाता आचार्य भद्रबाहु थे परन्तु वे दुष्काल पडने पर ध्यान साधना के लिए नेपाल चलें गये थे । उनसे दृष्टिवाद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्थूलिभद्र आदि पांच सौ साधु नेपाल गये । स्थूलभद्र ने १० पूर्व तक तो अर्थ सहित अध्ययन किया और अग्रिम चार पूर्व मात्र मुलहि पढ पाये, अर्थनहीं । भद्रबाहु प्रतिदिन मुनियों को सात वाचनाएं देते थे । शेष समय महाप्राण के ध्यान में व्यतीत करते थे । कल्पसूत्र की स्थविरावली में भद्रबाहु स्वामी के चार शिष्यों का उल्लेख है स्थविर गोदास, अग्निदत्त यज्ञदत्त और सोमदत्त । उक्त शिष्यों में से गोदास की क्रमशः चार शाखाएं प्रारंभ हुई । १ - ताम्रलिप्ति · कार २ कोटि वर्षिका ३ पाण्डुवर्षिका ४ और क्षयी कर्बटिका । भद्रबाहु ने अपने जीवन के ४५ वें वर्ष में दीक्षा ग्रहण की । ६२ वें वर्ष में युगप्रधान पद पर प्रतिष्ठित हुए । कुल ७६ वर्ष की आयु में वीर सं. १७० वर्ष में स्वर्गवासी हुए । एक मान्यता के अनुसार इन्होंने दससूत्रों पर नियुक्तियां लिखी हैं । वे इस प्रकार हैं- १ आवश्यक नियुक्ति २ दशवैकालिक नियुक्ति ४ उत्तराध्ययन निर्युक्ति ५ आचाराग नियुक्ति ६ सूत्र कृतांग निर्युक्ति ७ दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति ८ बृहद्कल्प निर्युक्ति ९ व्यवहारसूत्र निर्युक्ति १० सूर्यज्ञ नियुक्ति ११ वसुदेवचरियम् (अनुपलब्ध) भद्रबाहु संहिता ( अनुपलब्ध) ऋषिभाषित व्यवहार सूत्र मूल, दशाश्रुतस्कन्ध मूल, पंचकल्प मूल, बृहद्कल्प मूल, पिण्डनियुक्ति ओघनिर्युक्ति पर्यूषणाकल्प नियुक्ति उवस -- हर स्तोत्र । ८ वें पट्टआर्य स्थूलिमद्र आचार्य भद्रबाहु के पट्टपर महाप्रतापी स्थूलभद्र आसीन हुए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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