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उनका विवाह कर दिया । विवाह के अवसर पर कन्याओं के माता पिता ने ९९ क्रोड़ का देहेज दिया था । घर आकर जम्बूकुमार ने रात्रि में अपनी आठ स्त्रियों को उपदेश दिया और उन्हें वैराग्य रंग से रंग दिया। जब वे अपनी स्त्रियों को संसार की असारता समझा रहे थे उसी समय प्रभवनामक चोर अपने पांचसौ साथियों के साथ चोरी करने वहाँ आया। जम्बकमार ने उन्हें भी प्राते बोधदि या जम्बकमारके त्या वैराग्य और ज्ञान से प्रभावित हो कर उसने भी अपने साथियों के साथ दीक्षा लेने का विचार किया ।
दूसरे दिन आठ स्त्रियाँ, प्रभव और उसके पांच सौ साथी इन सब को लेकर अपने माता-पिता के के पास आये और उन्हें भी उपदेश देने लगे । अपने पुत्र की वैराग्य भरी वाणी को सुनकर उन्होंने भी प्रवज्या ग्रहण करने का निश्चय किया । इस प्रकार जम्बूकुमारने उनके माता-पिता, प्रभव और उनके पांचसौ साथो, जम्बूकुमार को आठ स्त्रियाँ एवं उन स्त्रीयों के माता-पिता इस प्रकार ५२७ जनों के साथ आर्य सुधर्मास्वामी के पास दीक्षा ग्रहण की ।। __श्रीजम्बूकुमार ने वीर सं. १ में सोलह वर्ष की खिलती हुई तरुणाअवस्था में दीक्षा धारण कर आर्य सुधर्मा स्वामी के समीप अध्ययन करने लगे । बारह वर्ष तक सुधर्मा स्वामो से आगमों का गम्भीर अध्ययन किया । वीर सं. १३ में सुधर्मा स्वामी के केवली बनने के पश्चात् आप श्रमण संघ के प्रमुख
वने । आठ वर्ष तक आचार्य पद पर अधिष्ठित रहने के बाद वीर सं. २० में आपको केवलज्ञान उत्पन्न हआ । ४४ वर्ष तक केवली अवस्था में धर्म प्रचार करते रहे । वीर सं.६४ में ८० वर्ष की आयु पूर्णकर मधुरा नगरी में वे निर्वाण को प्राप्त हुए । आप के पट्ट पर आर्यस्वामी प्रभव विराजे । २ श्रीप्रभव स्वामी___आप विन्ध्याचल पर्वन्तरर्गत जयपुर के राजा जेयसेन के पुत्र थे । आप का गोत्र कात्यायन था । इनका जन्म वीर संवत ३० के पुर्व ( वि. सं, ५०० वर्ष पुर्व ) हुआ था । पिता से अनबन होने के कारण अपने ४९९ साथियों के साथ राज्य छोड़कर लूट मार का धंधा करने लगे । एक बार वे अपने साथियों के साथ घूमते-घामते मगध आ पहुँचे जब इन्होंने जम्बूकुमार के विवाह करके ९९ करोड़ का दहेज लाने का समाचार सुना तो वे उसी रात्रि को अपने ४९९ साथियों के साथ उनके महल में चोरी करने के लिए पहुँचे । किन्तु चोरी करने के एवज में जम्बूकुमार के सदुपदेश से प्रभावित हो जम्बूकुमार के साथ प्रवर्जित होने का निश्चय किया । दूसरे दिन अपने ४९९ साथियों के साथ जम्बूकुमार के नेतृत्व में सुधर्मा स्वामी के पास ( वि. सं. ४७० पूर्व ) वीर सं. १ में तीस वर्ष की युवावस्था में दीक्षा धारण की । दीक्षां के बीस वर्ष पश्चात् ५० वर्ष की आयु में आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए । १०५ वर्ष की आयु पूर्णकर ( वि. सं. ३९ ५ वर्ष पूर्व) वीर सं. ७५ में अनशन कर समाधि पूर्वक स्वर्गवासी हुए । इनके पट्ट पर शय्यंभव आचार्य प्रतिष्ठित हुए । ३ श्रीआर्यशय्यभव___ आर्य शय्यंभव राजगृह के निवासी वत्सगोत्री ब्राह्मण थे । ये वैदिक साहित्य के धुरन्धर विद्वान थे । श्रीप्रभवस्वामी ने अपने दो साधुओं को उसकी यज्ञशाला में भेजा, सोधु वहाँ पहुँचे । वहाँ का दृश्य देखकर आचार्य की शिक्षा के अनुसार वे बोले-"अहो कष्टमहोकष्टं” तत्त्वं न ज्ञायते परम् ।" शय्यंभव ने यह सुना और सोचा- ये उपशान्त तपस्वी असत्य नही बोलते । अवश्य ही इस में रहस्य है । वह उठा
और अपने अध्यापक के पास जाकर बोला-“ कहिए तत्त्व क्या है ? अध्यापक ने कहा “ तत्त्व बेद है। शय्यंभव ने तलवार को म्यान से निकाला और कहा-" या तो तत्व बतलाइए अन्यथा इसी तलवार से सिर काट डालूगाँ ।”
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