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________________ कार्यों का वर्णन किया जा रहा है, जो इस प्रकार हैं 148 1) नियोजन (Planning) 2 ) संगठन (Organizing ) 3) संसाधन (Resourcing) 4) निर्देशन (Directing ) 5 ) समन्वयन ( Coordinating ) 6 ) नियन्त्रण (Controlling) (1 ) नियोजन (Planning) किसी भी कार्य के कुशलतापूर्वक क्रियान्वयन में नियोजन की अहम भूमिका रहती है। यह प्रबन्धन का वह प्राथमिक और प्रमुखतम कार्य है, जिस पर प्रबन्धन के संगठन आदि अन्य कार्य आश्रित रहते हैं। वस्तुतः, भविष्य में प्राप्त करने योग्य उद्देश्यों को वर्त्तमान में निर्धारित करना ही नियोजन है। यह किसी भी लक्ष्य के सन्दर्भ में क्या करना है, कैसे करना है और कब करना है, का निर्णय करता है। 149 जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन (Right Belief) एवं सम्यग्ज्ञान (Right Knowledge) की प्राप्ति को बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य माना गया है, जो इस बात को परिलक्षित करता है कि जैनदर्शन भी नियोजन एक विशिष्ट कर्त्तव्य है। इतना ही नहीं, इसे एक प्राथमिक कर्त्तव्य के रूप में भी प्रतिपादित किया गया है पढमं नाणं तओ दया (प्रथम नियोजन हो, फिर क्रियान्वयन हो) । उपाध्याय यशोविजयजी ने इसीलिए किसी भी कार्य के क्रियान्वयन के मूल में नियोजन (ज्ञान) को स्वीकार करते हुए कहा 150 151 सकल क्रियानुं मूळ ते श्रद्धा, तेहनुं मूळ ते तेह ज्ञान नित-नित वंदीजे, ते विण कहो केम (क) नियोजन के कार्य नियोजन के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्यों का समावेश होता है 1) लक्ष्य - निर्धारण (Determination of Goal) यह नियोजन का प्रथम चरण है, जिसमें प्राप्त करने योग्य मुख्य एवं सहायक लक्ष्यों का निर्धारण किया जाता है। वस्तुतः, इससे ही सम्पूर्ण प्रबन्धन - प्रक्रिया का प्रवाह सही दिशा में हो पाता है। 152 Jain Education International कहिए रे । रहिए रे ।। - - 153 जैनदर्शन में लक्ष्य-निर्धारण को हमेशा ही प्राथमिकता दी गई है। नियमसार में कहा गया है कि जिनशासन में सिर्फ 'लक्ष्य' और 'मार्ग' इन दो बातों का ही उपदेश दिया गया है । वस्तुतः, यहाँ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप पुरूषार्थ चतुष्टय की चर्चा लक्ष्य - निर्धारण की अपेक्षा से ही की गई है। जैनग्रन्थों में यह भी कहा गया है कि लक्ष्यविहीन (सम्यक्त्वविहीन ) जीवन संख्यारहित शून्य के समान है । 154 उपाध्याय यशोविजयजी ने सम्यक् लक्ष्य का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा है कि जीवन में पाँच प्रकार की क्रियाएँ सम्भव हैं, जिनमें से प्रथम तीन क्रियाएँ – विष, गरल एवं अननुष्ठान हैं, जो अकरणीय हैं, क्योंकि ये सम्यक् लक्ष्य से रहित होती हैं, जबकि अन्तिम दो क्रियाएँ तहेतु एवं अमृत हैं, जो करणीय हैं, क्योंकि ये सम्यक् लक्ष्यपूर्वक होती हैं।' (विशेष विवरण : देखें अध्याय 12 ) अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ - 155 41 41 — For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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