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2) नीति-निर्माण (Formulation of Policies) – ये वे मौलिक सिद्धान्त हैं, जिनके आधार पर कार्यों का क्रियान्वयन करके निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति की जाती है। यदि 'उद्देश्य' प्रबन्धन का लक्ष्य है, तो 'नीतियाँ' लक्ष्य-प्राप्ति का साधन। हेरॉल्ड कूण्ट्ज की दृष्टि में, नीतियाँ वे सामान्य विवरण हैं, जो निर्णय लेने में प्रबन्धकों को चिन्तन योग्य मार्गदर्शन प्रदान करती हैं।156
जैनदर्शन की यह विशेषता है कि इसमें आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक दोनों नीतियों का सम्यक् समन्वय किया गया है। इनका उद्देश्य यही है कि व्यक्ति भौतिक-मूल्यों के साथ-साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का विकास भी करे। वह इस प्रकार से जीवन जिए कि वह किसी को दुःखी न करे और कोई कुछ भी करे, वह दुःखी न हो – जिओ और जीने दो। 3) कार्यविधियाँ (Procedures) - कार्यविधि अर्थात् काम करने की क्रमिक विधि। यह लक्ष्य प्राप्ति के लिए कार्यों के सर्वश्रेष्ठ क्रम का चयन करने पर आधारित है, जिससे न्यूनतम निवेश में अधिकतम परिणाम प्राप्त किए जा सकें।57
जैनदर्शन में कार्य के सफल सम्पादन के लिए कार्यविधि को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। यहाँ स्वाध्याय की विधि क्रमशः वाचना, पृच्छना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा एवं धर्मकथा – इन पाँच अंगों से युक्त बताई गई है, उपासना की विधि गुरूवन्दन, चैत्यवन्दन, देववन्दन, सामायिक, देशावगासिक, पौषध, प्रतिक्रमण आदि रूपों में बताई गई है, आध्यात्मिक विकास की विधि क्रमशः सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करते हुए सम्यक्चारित्र की अभिवृद्धि करने रूप बताई गई है इत्यादि । 4) नियम (Rules) - वे बिन्दु, जो विशिष्ट परिस्थितियों के सन्दर्भ में दृढ़ निर्देश देते हैं और जिनका पालन करना अनिवार्य होता है, नियम कहलाते हैं। इन्हे 'Dos' and 'Don'ts' की सूची भी कहते
हैं।158
जैनदर्शन में नियमों' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका निर्धारण हेय, ज्ञेय एवं उपादेय के विश्लेषण के आधार पर किया जाता है। जैनआचारमीमांसा में सप्तव्यसन का त्याग, बाईस अभक्ष्य का त्याग, अकल्पनीय कार्यों का त्याग, मार्गानुसारी गुणों का पालन, श्रावक योग्य बारह व्रतों का पालन, साधक योग्य ग्यारह प्रतिमाओं का वहन , मुनि योग्य पंच महाव्रतों का पालन आदि जो निर्देश दिए गए हैं, वे वस्तुतः 'नियम' ही हैं। विशेषता यह है कि ये नियम उत्सर्ग (सामान्य) एवं अपवाद के भेद से दो प्रकार के हैं और व्यक्ति अपनी भूमिकानुसार इत्वरकथिक (अल्पावधि) या यावत्कथिक (आजीवन) रूप से इनका पालन कर सकता है। 5) व्यूहरचना एवं सुरक्षानीति (Strategy) - हर व्यक्ति को बदलते हुए परिवेश में आन्तरिक और बाह्य घटकों से कई बाधक कारण प्राप्त होते हैं। इनका सामना किस प्रकार से किया जाए, जिससे निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो सके, यह योजना ही व्यूहरचना एवं सुरक्षानीति कहलाती है।159
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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