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________________ सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समूह में कार्यरत सभी सदस्य दक्षतापूर्वक और प्रभावशाली तरीके से कार्य कर सकें।"132 8) हेनरी एल. सिस्क ने समन्वयता की मुख्यता के आधार पर कहा है, “निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए नियोजन करने, संगठन बनाने, निदेशन करने और नियन्त्रण करने की प्रक्रिया के माध्यम से सभी संसाधनों का समन्वय करना ही प्रबन्धन है।"133 9) जॉन एफ. मी. के अनुसार, “प्रबन्धन से आशय न्यूनतम प्रयास द्वारा अधिकतम परिणाम प्राप्त करने की कला से है, जिससे स्वामी और सेवक दोनों के लिए अधिकतम समृद्धि एवं खुशहाली और लोक के लिए सर्वश्रेष्ठ सेवा सम्भव हो सके।"134 प्रबन्धन की उपर्युक्त अवधारणाओं और परिभाषाओं से जहाँ एक ओर प्रबन्धन के विविध अर्थ प्राप्त होते हैं, वहीं दूसरी ओर यह निष्कर्ष भी निकलता है कि इन विचारधाराओं में एकमतता एवं ता का अभाव है और इसी कारण, आज तक भी आधुनिक विचारकों के द्वारा प्रबन्धन की सार्वभौमिक परिभाषा का विकास नहीं हो सका। 135 1.4.4 प्रबन्धन की अवधारणाओं एवं परिभाषाओं में विविधताओं के मूल कारण अब, यह विचारणीय है कि आखिर आधुनिक विद्वानों और विचारकों में दृष्टि-भेद क्यों रहा। आगे, इसके कुछ सम्भावित कारणों का वर्णन किया जा रहा है। ★ समय-भेद - विभिन्न विद्वानों का काल भिन्न-भिन्न रहा, अतः तत्कालीन प्रचलित ___ कार्य-प्रणालियों और कार्य-तकनीकों का प्रभाव भी उनकी विचारधाराओं पर पड़ा। ★ क्षेत्र-भेद - अविकसित, विकसित और विकासशील – इन भिन्न-भिन्न परिवेशों में कार्य करने से भी विचारधाराओं में भेद पड़ा। ★ संगठन-भेद - संगठनों के कई भेद होते हैं, जैसे - लघु या बृहद्, व्यावसायिक या अव्यावसायिक, श्रम-आधारित या मशीन-आधारित इत्यादि। इन सबकी संरचना एवं व्यवस्था में अन्तर होने से भी विचारधाराओं में भेद रहा। ★ प्रबन्धक-स्तर-भेद – एक ही संगठन में प्रबन्धकों के कई स्तर होते हैं, जैसे – शीर्ष (Top or Apex), माध्यमिक (Middle) या प्राथमिक (Primary) स्तर। इनमें भेद होने से भी प्रबन्धन सम्बन्धी विचारधाराओं में भेद आया। ★ शैक्षिक-भेद - अलग-अलग विद्वानों की शैक्षिक-पृष्ठभूमि में भी अन्तर होने से विचारधाराओं में भेद रहा। जैसे - टेलर ने लौकिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् प्रायोगिक अनुभव प्राप्त किया, जबकि फेयॉल ने सीधे ही प्रायोगिक अनुभव लिया। ★ अनुभव-भेद - कार्य, क्षेत्र, समय आदि से भी महत्त्वपूर्ण है – अनुभव की भिन्नता और इस अध्याय 1 : जीवन-प्रबन्धन का पथ १२ 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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