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________________ प्रसंग में हमने यह बतलाया है कि जिस प्रकार वैदिक परम्परा में शिक्षा का तात्पर्य 'सा विद्या या विमुक्तये' के रूप में स्पष्ट किया गया है, उसी प्रकार जैनग्रन्थ ऋषिभाषित में यह कहा गया है कि 'इमा विज्जा महाविज्जा..... सा विज्जा दुक्खमोयणी' अर्थात् वही विद्या सब विद्याओं में उत्तम है, जिसकी साधना से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है। इस प्रकार जैनदर्शन शिक्षा को सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त होने का माध्यम मानता है। चूँकि दुःख - विमुक्ति सभी जीवों का सामान्य लक्ष्य है, इसीलिए इस अध्याय के प्रारम्भ में ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि शिक्षा की आवश्यकता क्यों है और शिक्षा के माध्यम से जीवन का सम्यक् विकास कैसे सम्भव होता है। इसके पश्चात् प्रस्तुत तृतीय अध्याय में जैनदृष्टि से शिक्षा के विविध आयामों की चर्चा की गई है। इसमें जहाँ एक ओर लौकिक शिक्षा की बात कही गई है, वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक शिक्षा की बात भी कही गई है। इस प्रसंग में हमने जैन, बौद्ध और वैदिक प्राचीन शिक्षा - पद्धतियों की सामान्य प्रस्तुति की है और यह बताया है कि विभिन्न युगों में शिक्षा के सम्बन्ध में विविध दृष्टियाँ क्या रही हैं। इस सामान्य चर्चा के पश्चात् वर्त्तमान युग में शिक्षा का विकास किस प्रकार से हुआ है और इस हेतु कौन-कौन से अभिकरण (Agencies) अस्तित्व में आए हैं, इनकी भी चर्चा की है। साथ ही वर्त्तमान युग में शिक्षा के विविध आयाम क्या हैं, इन्हें भी बताया गया है। इसके पश्चात् हमने वर्त्तमान युग की शिक्षाप्रणाली की विशेषताओं एवं कमियों, दोनों का ही समीक्षात्मक - दृष्टि से अध्ययन करते हुए यह बताया है कि आध्यात्मिक - मूल्यों से रहित असन्तुलित शिक्षा के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं। इसके पश्चात् जैनआचारग्रन्थों का आधार लेते हुए शिक्षा के सम्यक् प्रबन्धन की बात कही है और यह बताया है कि लौकिक और लोकोत्तर या व्यावहारिक और आध्यात्मिक शिक्षा के समन्वयन के द्वारा ही मानव-जीवन का सम्यक् विकास सम्भव है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का चतुर्थ अध्याय समय- प्रबन्धन को लेकर है। इस अध्याय में हमने सर्वप्रथम समय के स्वरूप तथा उसकी विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए समय की सार्वकालिक महत्ता पर बल दिया है और यह बताया है कि मनुष्य को एक सीमित समय जीवन जीने के लिए उपलब्ध होता है और यह उस पर निर्भर करता है कि वह उस समय का सम्यक् उपयोग करता है या नहीं । समय-प्रबन्धन समय के सम्यक् उपयोग की बात करता है और यह बताता है कि जो व्यक्ति समय का सदुपयोग कर लेता है, वही अपने जीवन - विकास की यात्रा को आगे बढ़ा पाता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय समय की सार्वकालिक महत्ता को स्पष्ट करने के बाद वर्त्तमान युग में समय -प्रबन्धन की क्या आवश्यकता है और क्या महत्त्व है, इस बात पर बल देता है। साथ ही यह बताता है कि समय का सदुपयोग न करके अव्यस्थित ढंग से उसका दुरुपयोग करने के क्या-क्या दुष्परिणाम होते हैं। वर्त्तमान युग की जो भी प्रमुख समस्याएँ हैं, उनमें समय के सम्यक् उपयोग न करने से जनित समस्याएँ ही प्रधान हैं। इसके पश्चात् इस अध्याय में हमने जैनआचारमीमांसा के आधार पर समय-प्रबन्धन की बात कही है और इसी प्रसंग में यह भी बताया है कि भगवान् महावीर ने अपने प्रधान शिष्य गौतम को समय का सम्यक् सदुपयोग करने का उपदेश किस प्रकार दिया था। इसके 6 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 750 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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