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संतुलित सम्मिलन हो और जीवन-प्रबन्धन की प्रक्रिया में सर्वांगीणता आ सके। इसके पश्चात् जीवन की बहुआयामिता का वर्णन करते हुए हमने जीवन-प्रबन्धन के विविध आयामों को स्पष्ट किया है, जैसे - शिक्षा-प्रबन्धन, समय-प्रबन्धन, शरीर-प्रबन्धन, अभिव्यक्ति(वाणी)-प्रबन्धन, तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन, पर्यावरण-प्रबन्धन, समाज-प्रबन्धन, अर्थ-प्रबन्धन, भोगोपभोग-प्रबन्धन, धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन एवं आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन। इन विविध विधाओं की चर्चा तो अलग-अलग अध्याय में विस्तार से की है, किन्तु प्रस्तुत अध्याय में जीवन-प्रबन्धन के इन विविध आयामों को स्पष्ट करते हुए यही बताया है कि जीवन एक बहुआयामी प्रक्रिया है। अतः जीवन प्रबन्धन के लिए विविध क्षेत्रों या जीवन के विविध आयामों का प्रबन्धन आवश्यक है।
दूसरा अध्याय मूलतः जैनदर्शन और आचारशास्त्र में जीवन-प्रबन्धन के तत्त्वों को स्पष्ट करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सर्वप्रथम दर्शन और आचारशास्त्र का सह-सम्बन्ध बताया गया है और यह भी बताया गया है कि नीतिविहीन दर्शन और दर्शनविहीन नीति दोनों ही सार्थक नहीं हैं। दर्शन और नीति दोनों के सह-सम्बन्ध से ही जीवन-प्रबन्धन की यात्रा आगे बढ़ती है और इसी बात को स्पष्ट करते हुए आगे जैनआचारमीमांसा के उद्देश्य को प्रस्तुत करके जैनआचारमीमांसा और जीवन-प्रबन्धन के सहसम्बन्ध को समझाया गया है। नीतिविहीन जीवन, जीवन के अप्रबन्धन की स्थिति है, जबकि नीतियुक्त जीवन, जीवन–प्रबन्धन का सम्यक् स्वरूप है। इसके पश्चात् इस द्वितीय अध्याय में हमने जैनआचारमीमांसा में जीवन-प्रबन्धन के जो मुख्य तत्त्व रहे हुए हैं, उन्हें स्पष्ट करते हुए यह बताया है कि जैनआचारमीमांसा पंचाचार के माध्यम से जीवन-प्रबन्धन की बात करती है। जैनदर्शन की यह विशेषता है कि यह ज्ञान को निरी सूचना और आस्था को मात्र अन्धविश्वास नहीं बनाता, अपितु यह कहता है कि सैद्धान्तिक रूप से जो कुछ जाना है और माना है, उसे जीवन में जी कर दिखाना होगा। ज्ञान और दर्शन जब तक जीवन से जुड़ते नहीं हैं, तब तक वे मात्र सूचना और विश्वास ही हैं। इस प्रकार, जैनआचारमीमांसा मुख्यतः सम्यक् प्रकार से जीवन जीने की बात करती है
और यही उसकी दृष्टि में जीवन-प्रबन्धन का मुख्य तत्त्व है। इस अध्याय के निष्कर्ष में हमने यह बताया है कि जैनआचारशास्त्र में वर्णित पंचाचार जीवन-प्रबन्धन के सभी आयामों, जैसे - शिक्षा-प्रबन्धन, समय-प्रबन्धन, शरीर-प्रबन्धन, अभिव्यक्ति(वाणी)-प्रबन्धन, तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन, पर्यावरण-प्रबन्धन, समाज-प्रबन्धन, अर्थ-प्रबन्धन, भोगोपभोग-प्रबन्धन, धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन एवं आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन के प्रबन्धन की बात करता है और व्यक्ति का जीवन इनके सम्यक् प्रबन्धन पर निर्भर करता है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के प्रथम एवं द्वितीय अध्याय मूलतः जैन जीवन-प्रबन्धन की भूमिका रूप ही हैं। आगे, हमने जैनआचारमीमांसा को दृष्टिगत रखते हुए तृतीय अध्याय से शिक्षा प्रबन्धन, समय-प्रबन्धन, शरीर–प्रबन्धन आदि की बात कही है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का तृतीय अध्याय शिक्षा-प्रबन्धन से सम्बन्धित है। इस अध्याय में हमने सर्वप्रथम यही बताने का प्रयास किया है कि शिक्षा का स्वरूप क्या हो। इस अध्याय में शिक्षा का सामान्य परिचय देने और अर्थ स्पष्ट करने के
अध्याय 14 : जीवन-प्रबन्धन : एक सारांश
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