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________________ 13.7 निष्कर्ष प्रस्तुत अध्याय में हमने यह जाना कि अध्यात्म का जीवन में केन्द्रीय स्थान है। यह व्यक्ति को भोगासक्ति से उत्पन्न दुःखों से मुक्त कर सच्ची शान्ति प्रदान करता है। यहाँ अध्यात्म का सही अर्थ आत्मा को लक्ष्य में रखकर की जाने वाली हितकारी प्रक्रियाओं से है, न कि बाह्य क्रियाकाण्ड अथवा शारीरिक प्रवृत्तियों को करने से। जैनदर्शन में इसीलिए आत्मा के स्वरूप को गहराई तक समझाया गया और यह बताया गया कि साधक, साधन एवं साध्य की एकरूपता से ही व्यक्ति आध्यात्मिक-विकास की दिशा में अग्रसर हो सकता है। आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तर क्या-क्या हो सकते हैं और उनका वर्गीकरण किस-किस प्रकार से हो सकता है, यह बताना भी प्रस्तुत अध्याय का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य रहा है। इसे जानकर ही जीवन-प्रबन्धक स्वयं के वर्तमान स्तर का मूल्यांकन कर सकता है एवं सही साध्य की दिशा में क्रमशः आगे बढ़ सकता है। आध्यात्मिक साधना के मार्ग में आगे बढ़ने में कई विसंगतियाँ एवं बाधाएँ उत्पन्न होती हैं, अतः प्रस्तुत अध्याय में इन्हें मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र के रूप में समझाया गया है। यह भी विस्तार से बताया गया है कि इनमें से प्रत्येक विसंगति के उपभेद क्या-क्या हो सकते हैं? इस सन्दर्भ में विस्तार से चर्चा करने के पीछे हमारा उद्देश्य यही है कि व्यक्ति इन्हें समझकर ही इनके सम्यक् प्रबन्धन की दिशा में आगे बढ़े। इस प्रकार, प्रस्तुत अध्याय में आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन को सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक पक्षों के रूप में समझाया गया है। सैद्धान्तिक पक्ष के माध्यम से मूलतया जैनदर्शन की मोक्षमार्गीय अवधारणा को बताया गया है। इसके अन्तर्गत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के मूलस्वरूप पर दृष्टि डाली गई है और साथ ही इन्हें प्राप्त करने के लिए प्रयोजनभत विश्व-व्यवस्था एवं नव सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। इनके मन्थन से प्राप्त सूत्रों को भी सूचीबद्ध किया गया है, जिनका अनुशीलन कर जीवन-प्रबन्धक अपनी आध्यात्मिक क्षेत्र की भ्रान्त अवधारणाओं को तोड़ सकता है। यहाँ आध्यात्मिक-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक पक्ष के साथ-साथ उसके प्रायोगिक पक्ष की चर्चा भी की गई है तथा आध्यात्मिक विकास की प्रायोगिक प्रक्रिया को जैनदृष्टि के आधार पर भी दर्शाया गया है। इसके अन्तर्गत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र की प्राप्ति के अभ्यास-क्रमों का पृथक्-पृथक् विश्लेषण किया गया है और अन्त में इन तीनों की परिपूर्ण दशा रूप मोक्षावस्था को लक्षित किया गया है। विशेष जानकारी हेतु सम्बन्धित शास्त्रों का अवलोकन किया जा सकता है। =====4.>===== 44 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 740 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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