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________________ । पवस्था प्रारम्भ होता है और वीतरागदशा की प्राप्ति के साथ परिपूर्ण होता है। इस बीच में जितने जितने अंश में शुद्ध भाव होते हैं, उतना-उतना सम्यक्चारित्र होता है और शेष अंशों में अस्थिर चारित्र अर्थात् अपूर्ण सम्यक्चारित्र बना रहता है। अपनी दशा को उत्तरोत्तर बढ़ाने हेतु साधक बारम्बार वस्तु-स्वरूप या विश्व-व्यवस्था के आधार पर जीवन को ढालता है। वह अंतरंग में कषायों का शमन-दमन करता हुआ समत्व-भाव को बढ़ाता है। इस प्रक्रिया में क्रमशः अणुव्रतों एवं महाव्रतों को ग्रहण करता है तथा भावों को निर्मल करता है। अन्ततः, वह पूर्ण सम्यक्चारित्र को प्राप्त हो जाता है। अब, यह प्रश्न उठ सकता है कि विश्व-व्यवस्था क्या है और कैसी है, जिसके बल पर साधक अपनी दृष्टि को परिमार्जित, ज्ञान को निर्मल एवं आचरण को समत्व की दिशा में अग्रसर करता है। (6) जैनदृष्टि के आधार पर विश्व-व्यवस्था जैनदर्शन में विश्व (लोक) की जो व्यवस्था बताई गई है, उसका आधार वैज्ञानिक है और साथ ही वह जीव को समत्व भाव की ओर ले जाने वाली है। इस विश्व-व्यवस्था का वर्णन हमें भगवतीसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, द्रव्यसंग्रह आदि अनेक जैनशास्त्रों में मिलता है। भगवान् महावीर के अनुसार, यह विश्व छह प्रकार (जाति) के द्रव्यों का समूह है। ये हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म , आकाश एवं काल।130 इनमें से प्रत्येक द्रव्य अनन्त गुणों का समूह है। ये गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं तथा द्रव्य से कभी पृथक् नहीं होते, जैसे - आत्मा में ज्ञानगुण, पुद्गल में स्पर्शगुण इत्यादि । ये गुण स्वयं क्रियाशील होते हैं और प्रतिसमय बदल-बदल कर अपना कार्य करते रहते हैं, जिन्हें ‘पर्याय' कहा जाता है, जैसे – ज्ञानगुण का कार्य प्रतिसमय जानना है, स्पर्शगुण का कार्य मृदु, कठोर आदि होना है, इत्यादि। यह पर्याय वस्तुतः गुणों की अवस्था ही होती है। इस प्रकार, विश्व अनन्त द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक है। यहाँ यह विशेषता है कि द्रव्य और गुण तो नित्य हैं, जबकि पर्याय अनित्य है। इसे ही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त (Permanency with a change) विश्व-व्यवस्था कहा गया है।12 उदाहरणार्थ, आम (पुद्गल) एक द्रव्य है, उसमें स्वाद नामक गुण है एवं खट्टा, मीठा आदि उसकी (स्वाद गुण की) पर्याय है। व्यवहार-दृष्टि से कहा जा सकता है कि आम और उसकी स्वाद नामक शक्ति केरी अवस्था में भी वही थी एवं पकने के पश्चात् भी वही रही, किन्तु स्वाद की पर्याय पूर्व में खट्टी थी, क्रमशः मीठी होती गई। द्रव्यों में जो गुण होते हैं, उनके मूलतः दो भेद हैं - सामान्य गुण एवं विशेष गुण। सामान्य गुण वे हैं, जो सभी द्रव्यों में पाए जाते हैं और विशेष गुण वे हैं, जो सभी द्रव्यों में न रहकर अपनी-अपनी जाति वाले द्रव्यों में ही रहते हैं। उदाहरणार्थ, अस्तित्व गुण आदि सभी द्रव्यों का सामान्य गुण है, जबकि ज्ञानगुण आत्मा का विशेष गुण है। 133 विशेष गुणों के आधार पर जीवादि छह द्रव्यों को स्पष्टतया समझा जा सकता है। 32 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 728 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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