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(4) तप-त्याग का सम्यक् सन्तुलन न होना - मिथ्याचारित्र के वशीभूत होकर तप-त्याग का विवेक नहीं रहता। कोई भोग-लालसा से बाध्य होकर तप-त्याग को ही नकार देता है और साधन (मन्दकषाय एवं निवृत्ति) के अभाव में आत्मज्ञान से वंचित रह जाता है, तो कोई तप-त्याग में ही अटक कर आत्मज्ञान के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। कई लोग साधारण से तप-त्याग को ग्रहण करने में भी कतराते हैं और कई बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञा धारण करके जैसे-तैसे दुःखी होकर उसे पूर्ण करते हैं। कुछ लोग पाप से धनार्जन भी करते रहते हैं और बड़े-बड़े दान भी देते रहते हैं, जबकि कुछ लोग आरम्भ-समारम्भ का त्याग करके याचना आदि करते हुए देखे जाते हैं इत्यादि। इस प्रकार किसी एक धार्मिकपक्ष को मुख्यता देकर अन्य पक्षों की उपेक्षा करते हैं, इससे असन्तुलन उत्पन्न होता है और आध्यात्मिक साधना का सम्यक् विकास नहीं हो पाता।
त्याग-विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान।
अटके त्याग-विरागमां, तो भूले निजभान ।। 105 (5) व्रत-सम्बन्धी अयथार्थ आचरण - जैनदर्शन में उन्हीं व्रत-वैराग्यादि को सम्यक् कहा गया है, जो आत्मज्ञान के साथ अथवा उसके हेतु से ग्रहण किए जाते हैं, किन्तु मिथ्याचारित्र वाला जीव लक्ष्यविहीन होकर भी इन्हें स्वीकार कर लेता है। वह न किसी मान-सम्मान की प्राप्ति के लिए और न ही किसी विशेष लोभ की पूर्ति के लिए, अपितु इन्हें धर्म जानकर अर्थात् मोक्ष का साधन मानकर अणुव्रत और महाव्रत का पालन करता है। परिणामतः मोक्ष तो प्राप्त नहीं करता, केवल स्वर्गादिक को ही साधता है। जैसे कोई मिश्री को अमृत जानकर खा भी ले, तो भी वह अमर नहीं हो सकता, वैसे ही साधक को अपनी मान्यता के आधार पर नहीं, अपितु साधन के आधार पर फल मिलता है। (6) योग-साधना का अयथार्थ अनुकरण - मिथ्याचारित्र का एक अन्य रूप हठ-साधना के रूप में दिखाई देता है। व्यक्ति सम्यग्ज्ञान के आलोक के बिना ही स्वच्छन्द होकर बड़ी-बड़ी हठ साधनाएँ करने लगता है, जैसे - प्राणायाम, आसन-साधना, मौन साधना, अखण्ड जप, शास्त्र-रटन, पंचाग्नितप, उग्रतप, वनवास, उग्र-अभिग्रह आदि वस्तुतः, आध्यात्मिक साधना सहजता के साथ आगे बढ़ने की साधना है, न कि हठ के आधार पर। हठ साधना कई बार तीव्र उत्तेजना, रोष, क्रोध, श्राप आदि का रूप भी धारण कर लेती है। इस सन्दर्भ में अमृतचन्द्राचार्य , 106 सन्तआनन्दघनजी, 107 सन्तचिदानन्दजी,108 श्रीमद्देवचन्द्रजी,109 श्रीमद्राजचन्द्र ,110 सहजानन्दघनजी11 आदि की रचनाएँ इसी तथ्य की अभिव्यक्ति है।
इस प्रकार, मिथ्याचारित्र के वशीभूत होकर की जाने वाली आध्यात्मिक-साधना भी नाममात्र की साधना बन जाती है, उससे वास्तविक आध्यात्मिक विकास नहीं हो पाता।
सार रूप में आध्यात्मिक साधना की इन तीनों विसंगतियों को हमने जाना। यहाँ यह समझना होगा कि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र - तीनों परस्पर भिन्न दिखते हुए भी अभिन्न ही हैं।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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