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________________ इससे ही व्यक्ति का व्यवहार भी हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह – इन पाँचों पापों से युक्त हो जाता है। इसे ही असंयम भी कहते हैं। मिथ्याचारित्र सम्बन्धी प्रमुख विसंगतियाँ इस प्रकार हैं - (1) आध्यात्मिक साधना के लिए उचित पात्रता न होना – वर्त्तमानयुग भौतिकवाद का युग है, जिसमें भोग-विलास के साधनों के प्रति विशेष आकर्षण है। इसमें अर्थ एवं भोग सम्बन्धी पुरूषार्थ जितना-जितना बढ़ा है, उतना-उतना धर्म एवं मोक्ष पुरूषार्थ का ह्रास भी हुआ है। इससे व्यक्ति में आध्यात्मिक साधना हेतु योग्य पात्रता का भी अभाव हो रहा है। श्रीमद्राजचन्द्र ने ऐसे जीवों का लक्षण इस प्रकार बताया है102 - काळदोष कळिथी थयो, नहि मर्यादाधर्म। तोय नहीं व्याकुळता, जुओ प्रभु मुजकर्म ।। (2) मतार्थता होना, आत्मार्थता न होना – मत जिसका लक्ष्य है, वह जीव मतार्थी एवं आत्मा जिसका लक्ष्य है, वह जीव आत्मार्थी होता है। वर्तमान युग में साधक की मतार्थता (मताग्रहीपना) बढ़ती जा रही है और आत्मार्थता (आत्मलक्षीपना) घटती जा रही है। मिथ्याचारित्र की तीव्रता होने से पहली भूल यह होती है कि साधक गच्छ, मत, पन्थ, परम्परा, कुल, जाति के प्रति मोहान्ध हो जाता है, जिसे दृष्टि-राग भी कहा जाता है। दूसरी भूल यह होती है कि वह बाह्य त्याग के आधार पर ही किसी को भी गुरु मान लेता है। तीसरी भूल, परमात्मा को भी केवल दैहिक लक्षणों अथवा समवशरण आदि सिद्धियों के आधार पर समझता है, न कि उनके अंतरंग स्वरूप के आधार पर। चौथी भूल , आत्मज्ञान के उपदेशक सद्गुरु का प्रत्यक्ष योग मिलने पर भी उनसे दूरी बना लेता है। पाँचवी भूल, असद्गुरु का सान्निध्य मिलने पर उनके निकट जाकर उनके प्रति विशेष निष्ठा उत्पन्न करता है, क्योंकि वहाँ उसके मान की पुष्टि होती है, इत्यादि।103 इस प्रकार, मतार्थी जीव पक्षपातबुद्धि होने के कारण विवेकपूर्वक निर्णय नहीं ले पाता, आत्मार्थीपने का अभाव होने से वह आध्यात्मिक साधना से वंचित रह जाता है। नहि कषाय उपशान्तता, नहि अन्तर वैराग्य। सरळ पणुं न मध्यस्थता, ए मतार्थी दुर्भाग्य ।।। (3) सद्गुरु के प्रति सम्यक् भक्ति का अभाव होना – सद्गुरु का सान्निध्य मिलने पर उनके प्रति जो समर्पण होना चाहिए, वह भी मिथ्याचारित्र के कारण नहीं हो पाता। मान-कषायवशात् उनके समक्ष अपने दोषों की स्वीकृति भी नहीं हो पाती। श्रीमद्राजचन्द्र ने ‘सद्गुरुभक्तिरहस्य' नामक काव्य में भक्ति के आध्यात्मिक स्वरूप का सुन्दर चित्रण किया है। वस्तुतः, सांसारिक-कामनाओं को छोड़कर एकमात्र आत्मिक-विकास के लक्ष्य से की जाने वाली भक्ति ही आध्यात्मिक-विकास का साधन बन सकती है।104 719 अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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