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13.4 आध्यात्मिक साधना में आई विसंगतियाँ एवं बाधाएँ
आध्यात्मिक साधना का मार्ग सहज--स्वाधीन, निर्दोष-निराकुल, अखण्ड-अव्याबाध सुख को देने वाला है, फिर भी प्रायः यह देखा जाता है कि व्यक्ति अनेक प्रकार की विसंगतियों में फँसकर उनसे उत्पन्न होने वाली बाधाओं के कारण इस मार्ग का सम्यक लाभ नहीं उठा पाता। जैनाचार विसंगतियों को मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र कहा है। कहीं-कहीं पर मिथ्यातप एवं मिथ्यापुरूषार्थ को मिथ्याचारित्र से पृथक् करके भी दर्शाया गया है। इन्हें सम्यक्तया समझकर जीवन-प्रबन्धक आध्यात्मिक साधना में आने वाली विसंगतियों एवं बाधाओं का सम्यक् प्रबन्धन करके आध्यात्मिक ऊँचाइयों पर पहुँच सकता है। जिस प्रकार कुशल वैद्य रोग के कारणों को विशेष रूप से बताता है, जिससे रोगी कुपथ्य का सेवन न करे और शीघ्र ही रोगरहित हो जाए, उसी प्रकार जैनाचार्यों ने इन मिथ्याभावों को विस्तार से समझाया है, जिससे जीवन-प्रबन्धक इनका परिहार करके आध्यात्मिक आरोग्य की प्राप्ति कर सके। ये मिथ्याभाव निम्न हैं - 13.4.1 मिथ्यादर्शन एवं उसका स्वरूप
जैसा कि पूर्व में बारम्बार यह उल्लेख किया गया है कि मिथ्यादर्शन आत्मा की सबसे प्रमुख बाधाओं में से एक है। यह वह दशा है. जिसमें सत्य का यथार्थ श्रद्धान नहीं हो पाता। वस्त का स्वरूप जैसा नहीं है, वैसा मान लेना और जैसा है, वैसा नहीं मानना, यह विपरीत अभिप्राय होना ही मिथ्यादर्शन की पहचान है। जैनाचार्यों ने इस दशा को मूढ़ता, उन्मत्तता, मूर्खता या पागलपन की संज्ञा दी है, क्योंकि इस दशा में आत्मा प्रयोजनभूत विषयों (आत्मिक-लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनिवार्य विषयों) को अन्यथा जानता एवं मानता है और इससे वह अपनी आत्मा का अहित ही करता है। ये प्रयोजनभूत विषय नौ हैं – जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, लेकिन मिथ्यादृष्टि आत्मा इन नवतत्त्वों के सम्बन्ध में विपरीत अभिप्राय ग्रहण कर लेती है। फलस्वरूप, उसे स्व–पर का सम्यक् श्रद्धान नहीं हो पाता और न ही आत्म-तत्त्व के स्वरूप की सम्यक् श्रद्धा हो पाती है। यहाँ तक कि यह मिथ्यादृष्टि आत्मा नवतत्त्वों के उपदेशक एवं आत्महित का सन्मार्ग बताने वाले सुदेव, सुगुरु एवं सद्धर्म (सत्शास्त्र) पर भी सम्यक् आस्था नहीं कर पाती। मिथ्यादर्शन की प्रमुख विसंगतियाँ हैं - (1) जीव को अजीव एवं अजीव को जीव मानना – यद्यपि देह और आत्मा भिन्न-भिन्न होते हैं, वैसे ही जैसे असि और म्यान, फिर भी मिथ्यादृष्टि देह को ही आत्मा मान लेता है। वस्तुतः, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श एवं आकार आदि विशेषताएँ तो दैहिक हैं, लेकिन वह यह मानता है कि मैं काला हूँ, गोरा हूँ, भारी हूँ, हल्का हूँ, लम्बा हूँ, बौना हूँ इत्यादि। आत्मा अजर-अमर है, लेकिन वह शरीर की उत्पत्ति-विनाश के आधार पर स्वयं का जन्म-मरण मानता है। इसी प्रकार आत्मा जानती, देखती, सोचती, समझती है, लेकिन वह यह मानता है कि ये सभी शरीर (स्नायु तंत्र) की क्रियाएँ हैं। वह केवल देह से ही सम्बन्ध नहीं जोड़ता, अपितु पुत्र-पुत्री, स्त्री, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन
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