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________________ (9) अनिवृत्ति बादर गुणस्थान - इस गुणस्थान में सभी साधकों की समान परिणति होती है। आठवें तक परिणति में भेद बना रहता है, नवमें से अभेद शुरु होता है। समान समयवर्ती सभी साधकों के परिणाम समान होते हैं और प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि को प्राप्त होते हैं। कषायों का उपशम अथवा क्षय का क्रम जारी रहता है और अन्त में सूक्ष्म लोभ कषाय ही शेष रहती है।92 (10) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान – जिस प्रकार फर्श पर पानी गिरकर सूख जाता है, किन्तु एक निशान रह जाता है, उसी प्रकार इस गुणस्थान में साधक के अचेतन मन में कषायों के निशान जैसा सूक्ष्म लोभ कषाय का अस्तित्व रहता है, अन्ततः इस सूक्ष्म लोभ का भी उपशम या क्षय हो जाता है। (11) उपशान्त-मोह छद्मस्थ वीतराग गुणस्थान - इस गुणस्थान में वही साधक प्रवेश करते हैं, जिन्होंने आठवें, नवमें एवं दसवें गुणस्थान में कषायों का उपशम किया हो। इसमें साधक छद्मस्थ (असर्वज्ञ) रहते हुए भी कुछ समय के लिए वीतरागी के समान बन जाते हैं। इसमें अन्तर्मुहूर्त काल तक पूर्णानन्द का सेवन करने के पश्चात् साधक की दमित वासनाएँ पुनः उभरने लगती हैं और वे नीचे के गुणस्थानों में गिर जाते हैं। (12) क्षीण-मोह छद्मस्थ वीतराग गुणस्थान - इस गुणस्थान में वही साधक प्रवेश करते हैं, जिन्होंने आठवें, नवमें एवं दसवें गुणस्थानों में कषायों का क्षय किया हो। इसमें भी साधक छद्मस्थ (असर्वज्ञ) रहते हुए वीतराग-अवस्था का रसपान करते हैं। (13) सयोगी केवली गुणस्थान - इस गुणस्थान में साधक केवल–ज्ञान (सर्वज्ञता), केवल-दर्शन (सर्वदर्शिता), अनन्त सुख एवं अनन्त वीर्य (बल) की प्राप्ति कर लेते हैं। वस्तुतः, ये साधक साधना के द्वारा साध्य की उपलब्धि कर लेते हैं। अब कुछ करना शेष नहीं रहता, फिर भी देह का संयोग रहने तक 'योग' प्रवृत्तियाँ स्वभाविक रूप से चलती रहती हैं। (14) अयोगी केवली गुणस्थान - देह से सम्बन्ध छूटने से ठीक पूर्व इस गुणस्थान की प्राप्ति होती है। इसमें मन-वचन-काया की सारी चेष्टाएँ शान्त होकर अयोगी अवस्था की प्राप्ति होती है। देह से सम्बन्ध छूटते ही साधक सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार, गुणस्थान-सिद्धान्त साधक की निकृष्टतम अवस्था से लेकर साध्य से एकाकार हो जाने तक के विविध सोपानों का क्रमिक चित्रण प्रस्तुत करता है। इसका उल्लेख आगम-साहित्य में 'जीवस्थान के नाम से एवं परवर्ती साहित्य में ‘गुणस्थान के नाम से मिलता है। =====<b>===== 18 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 714 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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