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________________ 13.3 जैनधर्म में आध्यात्मिक जीवन के विविध स्तर आध्यात्मिक जीवन की यह विशेषता होती है कि यद्यपि इसका साध्य एकरूप ही होता है, फिर भी साधक की अवस्था एक समान नहीं होती। राग-द्वेष, कषाय और वासना की तरतमता सभी साधकों में अलग-अलग होती है और इससे साधकों के अनेक स्तर बन जाते हैं। साधक जिस स्तर पर होता है, उसकी साधना भी उसी स्तर के अनुरूप होती है। इस प्रकार, साध्य में एकरूपता होने के बाद भी साधक और उसके साधना-स्तर में व्यक्तिविशेष की अपेक्षा से विविधताएँ होती हैं। अतः यह समझना होगा कि आध्यात्मिक जीवन-प्रबन्धन की दिशा में जो साधक कदम बढ़ाते हैं. उनके विभिन्न स्तर क्या हो सकते हैं और तदनुरूप उनकी साधना के भी क्या-क्या स्तर हो सकते हैं? मुख्य रूप से यह ध्यान रखना होगा कि साधना के स्तरों में तो अन्तर रह सकता है, परन्तु मूल साधना-मार्ग की दिशा सभी साधकों की समान ही होती है। 13.3.1 प्रथम वर्गीकरण : उपस्थित अनुपस्थित के आधार पर जैनधर्म में आध्यात्मिक जीवन के विभिन्न स्तरों की जो चर्चाएँ हुई हैं, उनमें से सबसे मुख्य चर्चा उन दो वर्गों को लेकर है, जिनमें से पहला वर्ग वह है, जो अभी साधना मार्ग में उपस्थित ही नहीं है और दूसरा वह है, जो साधना मार्ग में उपस्थित होकर साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर रहा है। आचारांगसूत्र में इन्हें 'अनुपस्थित' और 'उपस्थित' के रूप में विवेचित किया गया है। उपस्थित के लिए पण्डित, मेधावी, धीर, सम्यक्त्वदर्शी और अनन्यदर्शी - ये नाम प्रयुक्त हैं और अनुपस्थित को बाल, मन्द और मूढ के नामों से अभिहित किया गया है। 13.3.2 द्वितीय वर्गीकरण : बहिरात्मा-अन्तरात्मा-परमात्मा के आधार पर साधक के विभिन्न स्तरों को लेकर जो दूसरा वर्गीकरण है, वह आत्मा की तीन अवस्थाओं पर आधारित है - (1) बहिरात्मा - जैनाचार्यों ने उस आत्मा को बहिरात्मा कहा है, जो सांसारिक विषय-भोगों में रुचि रखती है। वह पर-पदार्थों में आत्मबुद्धि का आरोपण करके जीती रहती है और मिथ्यात्व से युक्त होती है। यह आत्मा की बहिर्मुखी अर्थात् विषयाभिमुखी अवस्था है। (2) अन्तरात्मा - अन्तरात्मा देहात्मबुद्धि से रहित होती है, क्योंकि वह स्व और पर की भिन्नता को भेदविज्ञान के द्वारा जान लेती है। यह आत्मा बारम्बार अपने परमात्मस्वरूप का आलम्बन लेकर ज्ञाता–दृष्टा भाव में रहने का अभ्यास करती रहती है। यह चेतना की अन्तर्मुखी अवस्था है। (3) परमात्मा – जो आत्मा कर्ममल से रहित, राग-द्वेष की विजेता, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होती है, उसे परमात्मा कहा जाता है। परमात्मा के पूर्वोक्त दो भेद किए गए हैं - अरिहंत और सिद्ध । जीवनमुक्त आत्मा को अरिहंत एवं देहमुक्त आत्मा को सिद्ध कहा जाता है। 707 अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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