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________________ की प्राथमिक अवस्था मलिन होती है, किन्तु विभिन्न साधनाओं के द्वारा वह परमात्मदशा (साध्य) को भी प्राप्त कर लेता है। साधक के सामान्य लक्षण दर्शाते हुए अध्यात्मोपनिषद् में कहा गया है कि साधक में तीन बातों का होना आवश्यक है – मोह की अल्पता, आत्मस्वरूप की ओर अभिमुखता एवं अपने दुराग्रहों से मुक्ति। 15 श्रीमद्राजचन्द्र ने भी आत्मज्ञान प्राप्ति के योग्य अधिकारी के चार लक्षण बताए हैं - विशालबुद्धि , मध्यस्थता, सरलता और जितेन्द्रियता। अन्यत्र भी सच्ची मुमुक्षुता का लक्षण दर्शाते हुए कहा है कि सर्व प्रकार की मोहासक्ति से आकुल-व्याकुल होकर एक मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करने वाला मुमुक्षु (साधक) है और इससे भी अधिक जो अनन्य प्रेम से मोक्षमार्ग में प्रतिक्षण प्रवृत्तिशील है, वह तीव्र मुमुक्षु (विशेष साधक) है।" धर्मसंग्रह श्रावकाचार में कहा गया है कि जो ज्ञानानन्दमय आत्मा को साधता है, वह साधक है। सागार-धर्मामृत में कहा गया है कि जो समाधिमरण को साधता है, वह साधक (श्रावक) है। इस प्रकार साधकों के विविध लक्षण जैनआचारशास्त्रों में वर्णित हैं। वस्तुतः, राग-द्वेष, कषाय और वासनाओं की मात्रा सब साधकों की अलग-अलग होती है और इसीलिए भिन्न-भिन्न प्रकार से साधकों के लक्षण बताए गए हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने जघन्य और उत्कृष्ट साधक के आध्यात्मिक जीवन का अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है – 'साधना की प्राथमिक अवस्था में साधक इन्द्रिय-विषयों का अनिष्ट बुद्धि से त्याग करता है, परन्तु वही साधना के उच्च शिखर पर पहुँचकर, न तो विषयों का त्याग करता है और न ही ग्रहण, अपितु उनके यथार्थ स्वरूप का दृष्टामात्र रहता है। 40 निष्कर्ष यह है कि आध्यात्मिक विकास में साधक , साधन और साध्य की एकरूपता होती है। आत्मा ही साध्य, आत्मा ही साधन एवं आत्मा ही साधक होती है। भगवतीसूत्र का यह कथन कि “आया णे अज्जे! सामाइए, आया णे अज्जे! सामाइयस्स अटे41 अर्थात् आत्मा स्वयं समत्वरूप है एवं समत्व की प्राप्ति उसका लक्ष्य है, साधक और साध्य की एकरूपता दर्शाता है। इसी प्रकार नियमसार की यह पंक्ति कि आत्मा को ज्ञान-दर्शन रूप जानो और ज्ञान-दर्शन को आत्मा जानो42 अथवा समयसार का यह कथन कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र परमार्थ-दृष्टि से आत्मा ही है,43 साधक एवं साधन की एकरूपता को प्रतिपादित करता है। ===== ===== 10 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 706 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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