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________________ 13.1.2 आध्यात्मिक विकास का सम्यक अभिप्राय __'अध्यात्म' शब्द अधि + आत्म से बना है। संस्कृत वैयाकरणों ने इसकी व्युत्पत्ति दर्शाते हुए कहा है - 'आत्मनि इति अध्यात्मम्' अर्थात् आत्मा के विषय में जो कुछ होता है, वह अध्यात्म है। अन्यत्र भी कहा गया है – 'आत्मानम् अधिकृत्य यद् वर्तते तद् अध्यात्मम्' अर्थात् आत्मा को लक्ष्य में रखकर जो क्रिया की जाती है, वह अध्यात्म है। उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार - 'आत्मा को केन्द्र में रखकर जो पंचाचार का सम्यक्तया पालन किया जाता है, वह अध्यात्म है।' टीका में इसी बात को समझाते हुए कहा गया है – सुविशुद्ध एवं अनन्तगुणों का स्वामी परमात्मतुल्य निजात्मा को लक्षित करके ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार का पालन करना ही अध्यात्म है।० अध्यात्मसार में इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है – 'आत्मा पर मोह का आधिपत्य समाप्त होने पर जो आत्म-केन्द्रित शुद्ध क्रियाएँ होती हैं, उन्हें अध्यात्म कहना चाहिए।'' बृहद्रव्यसंग्रह में मोह को स्पष्ट करते हुए अध्यात्म के बारे में कहा गया है - 'मिथ्यात्व एवं रागादि समस्त विकल्प जालों का त्याग करके शुद्ध आत्मतत्त्व में रमण करना अध्यात्म है।12 समयसार में संक्षेप में कहा गया है कि अपनी शुद्धात्मा की विशुद्धता के लिए आधारभूत आचरण करना ही अध्यात्म है। इस प्रकार, जैनदर्शन में 'अध्यात्म' शब्द आत्मा की विशिष्टता का सूचक है। अध्यात्म की दिशा में जीवन को अग्रसर करना ही आध्यात्मिक-विकास है। दूसरे शब्दो में, आध्यात्मिक-विकास आत्मा का विकास है। इस विकास के मार्ग में पदार्थ परम मूल्य न होकर आत्मा ही परम मूल्य है। जीवन का परम लक्ष्य भी भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि नहीं, अपितु आत्मिक आनन्द की अनुभूति है। आत्मा के कषायजन्य मलिन परिणामों का क्षय कर निर्मल परिणामों की प्राप्ति होना ही इस विकास का मापदण्ड है। इस प्रकार, आध्यात्मिक-विकास का मार्ग मूलतः इच्छाओं, वासनाओं एवं कषायों से ऊपर उठकर समता, सन्तोष , क्षमा, मृदुता आदि सद्गुणों की संप्राप्ति है। 13.1.3 आध्यात्मिक विकास का लक्ष्य आत्मोपलब्धि ही क्यों? यह एक ज्वलन्त प्रश्न है कि आध्यात्मिक विकास के लिए आत्मोपलब्धि को परम मूल्य क्यों माना गया और भौतिक-विकास के प्रयत्नों में आत्मा को महत्त्व क्यों नहीं दिया गया? गहराई से समीक्षा करने पर यह स्पष्ट होता है कि भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास की दृष्टियों में तात्त्विक रूप से ही अन्तर है। जीवन-प्रबन्धक के लिए इस अन्तर को समझना अत्यावश्यक है। भौतिक-दृष्टि सुख-दुःख का आधार बाह्य वस्तुओं को मानती है। उसके अनुसार, सुख-दुःख वस्तुगत तथ्य हैं। अतः उसमें आत्मा को महत्त्व नहीं दिया गया। इसके विपरीत, आध्यात्मिक-दृष्टि सुख-दुःख का केन्द्र आत्मा को ही मानती है। इसके अनुसार, सुख-दुःख दोनों आत्मकृत हैं, वास्तविक आनन्द की उपलब्धि पदार्थों से नहीं, अपितु आत्मिक भावों से ही होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा गया है कि सुख और दुःख का कर्ता-भोक्ता आत्मा स्वयं है। वही अपना मित्र भी है और 699 अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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