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________________ स्पष्ट कहा गया है' 'सुहसाया दुक्ख पडिकूला' अर्थात् सभी को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय । समणसुत्तं में इसकी सार्वभौमिकता दर्शाते हुए कहा गया कि जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है । 2 प्रशमरति प्रकरण के टीकाकार इसे एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में दर्शाते हुए कहते हैं सुख की अभिलाषा होना प्रत्येक जीव का स्वभाव ही है, वह स्वाभाविक रूप से सुख चाहता है और दुःख से डरता है। किन्तु यहाँ सुख का तात्पर्य वस्तुगत सुख (Objective Pleasure ) नहीं, अपितु आत्मगत सुख (Subjective Happiness) है। 3 यहाँ प्रश्न उठता है, कि जब आधार और दिशा भिन्न-भिन्न हैं, तो दोनों में से कौन-सा विकास वास्तव में सुख-प्राप्ति का हेतु है? भगवान् महावीर ने गहराई से इन दोनों धाराओं को समझाया और यह कहा कि समस्त दुःखों का मूल कारण व्यक्ति की भौतिक पदार्थों के प्रति आसक्ति या ममत्ववृत्ति है । यद्यपि भौतिक विकास से प्राप्त सुख-सुविधा के साधनों के द्वारा व्यक्ति दुःखों के निवारण का प्रयत्न करता है, तथापि वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर पाता, जिससे दुःख का स्रोत प्रस्फुटित होता है। आशय यह है कि भौतिक विकास के द्वारा इच्छाओं, आकांक्षाओं एवं तृष्णाओं को समाप्त करना सम्भव नहीं है। भौतिक विकास भले ही इच्छापूर्ति के द्वारा मानवीय आकांक्षाओं को परितृप्त करना चाहता है, किन्तु वह अग्नि में डाले गए घृत के समान आकांक्षाओं को उपशान्त करने की अपेक्षा और अधिक बढ़ाता ही है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार, “भौतिक विकास की दिशा में किया जाने वाला प्रयत्न तो टहनियों को काटकर जड़ को सींचने के समान है ।" " - यह प्रश्न उठ सकता है, कि आखिर भौतिक विकास इच्छापूर्ति करने में समर्थ क्यों नहीं है? जैन आगमों में इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त होती हैं और उनकी पूर्ति के साधन सीमित हैं। सीमित साधनों से असीम की पूर्ति करना असम्भव है। कहा गया है चाहे स्वर्ण और रजत के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी खड़े हो जाएँ, फिर भी मनुष्य की तृष्णा को पूरा करने में समर्थ नहीं हो सकते।' इस प्रकार भले ही साधनों का अन्त हो जाए, किन्तु इच्छाओं का अन्त नहीं होता। कहावत भी है Our desires are unlimited, but means are limited. यही कारण है कि मानव के द्वारा किया जाने वाला अत्यधिक भौतिक-विकास भी उसकी इच्छाओं की पूर्ति करने में असमर्थ है। भगवान् महावीर ने इसीलिए भौतिक विकास के मार्ग को सुख - प्राप्ति का मार्ग नहीं बताया, वरन् एक ऐसे मार्ग को प्ररूपित किया, जिससे सुख-प्राप्ति की अभिलाषा पूर्ण हो सके। यह मार्ग है आध्यात्मिक - विकास का मार्ग, जिसके माध्यम से जीवन- प्रबन्धक दुःखों से पूर्ण मुक्त होकर आत्मिक सुख से सराबोर हो जाता है। इसे ही हम आध्यात्मिक - प्रबन्धन की प्रक्रिया भी कह सकते हैं । किन्तु, सर्वप्रथम हमें यह समझ लेना होगा कि आध्यात्मिक-विकास से हमारा तात्पर्य क्या है? 2 Jain Education International जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only - 698 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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