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12.2 धर्म का जीवन में महत्त्व एवं स्थान
प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति में धर्म का विशेष महत्त्व रहा है। पुरूषार्थ चतुष्टय में धर्म को प्रथम स्थान दिया गया है, क्योंकि जहाँ यह अर्थ और काम को मर्यादित करके उन्हें मूल्यों (Values) की श्रेणी में लाता है, वहीं यह मोक्ष का साधन भी बनता है। स्पष्ट है कि धर्म के बिना अर्थ और काम अनर्थकारी बन जाते हैं और मोक्ष केवल एक कल्पना भर रह जाता है। यही कारण है कि त्रिवर्गवादी एवं चतुर्वर्गवादी विचारकों ने धर्म को जीवन की प्राथमिक आवश्यकता माना है। आज भी इस बात की आवश्यकता है कि हम जो महत्त्व रोटी, कपड़ा एवं मकान को देते हैं, उससे भी अधिक महत्त्व धर्म को दें। मेरी दृष्टि में, जीवन में धर्म की केन्द्रीय भूमिका निम्न चित्र से स्पष्ट है -
मोक्ष
काम
| अर्थ
काम 12.2.1 धर्म के महत्त्व को प्रतिपादित करने वाली जैन सूक्तियाँ * धर्म विश्व का सर्वोत्तम मंगल है। इस धर्म का लक्षण है - अहिंसा, संयम और तप। जिसका
मन सदैव धर्म में लीन रहता है, उसे देव भी नमन करते हैं। * रत्नत्रय से युक्त धर्म रक्षक है, शरण है, सद्गति-प्रदायक है, संसार गर्त में गिरने वालों के लिए आधार है और यदि सम्यक् प्रकार से आचरण में लाया जाए, तो यह अजरामर मोक्षपद को
प्राप्त कराने वाला है।20 ★ यह धर्म इसलोक और परलोक में प्रीति कराने वाला, कीर्ति दिलाने वाला, तेजस्वी और यशस्वी
बनाने वाला, प्रशंसनीय एवं रमणीय बनाने वाला, भयमुक्त करने वाला, शान्ति देने वाला तथा सभी शुभाशुभ कर्मों का क्षय करने वाला है। ★ सम्यक प्रकार से जीवन में उतारा हुआ धर्म परभव में भी लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों दृष्टि से
कल्याणकारी होता है। ★ धर्मनिष्ठ व्यक्ति परलोक में भी देवेन्द्र या चक्रवर्ती पद की प्राप्ति करता है अथवा आत्मलीन
होकर मोक्ष पद की प्राप्ति करता है। ★ धर्म वह जलाशय है, जिसमें स्नान कर आत्मा कर्ममल से मुक्त हो जाती है।24 ★ इस संसार में धर्म ही हमारा सब कुछ है और धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई शरणभूत नहीं है।
यह धर्म ही हमारा गुरु है, मित्र है, स्वामी है, बन्धु है और निष्कारण हम अनाथों से वात्सल्य करने वाला है।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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