SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 756
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का द्योतक है कि धर्म एक नैतिक नियमावली (Moral Code) है, जो सभी के लिए अनुकरणीय है। यह नियमावली हमें संविधान की तरह हेय - ज्ञेय - उपादेय का भेद कराती और पूर्ण नियोजित जीवन जीने की प्रेरणा देती है। पाइयसद्दमहण्णवो के अनुसार, 'हमारे सदाचार, सुकृत, (5) सदाचार ( Good Conduct ) कुशल - अनुष्ठान एवं शुभ कर्म धर्म हैं। " अन्यत्र भी कहा है 'चारित्तं खलु धम्मो' अर्थात् चारित्र वास्तव में धर्म है।' आचारांगसूत्र के अनुसार, 'समियाए धम्मे' अर्थात् समता में रहना धर्म है। कार्त्तिकेय-अनुप्रेक्षा में कहा गया है कि उत्तम क्षमा, उत्तम मृदुता, उत्तम सरलता, उत्तम निर्लोभता, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य एवं उत्तम ब्रह्मचर्य, इनका पालन करना धर्म है। इस प्रकार, सम्यक् आचरण को भी धर्म के रूप में बताया गया हैं । 10 ( 6 ) रत्नत्रय (The Three Gems) कार्त्तिकेय - अनुप्रेक्षा के अनुसार, 'सम्यग्दर्शन (Right Faith), सम्यग्ज्ञान (Right Knowledge), एवं सम्यक्चारित्र (Right Conduct ) रत्नत्रय धर्म है।' वस्तुतः ये सम्यग्दर्शन आदि आत्मा की ही शुद्ध अवस्थाएँ हैं आत्मस्वरूप का निश्चय सम्यग्दर्शन, आत्मस्वरूप का परिज्ञान सम्यग्ज्ञान और आत्मस्वरूप में स्थिरता सम्यक्चारित्र है । यह धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप है। 11 - इस प्रकार, 'धर्म' शब्द का प्रयोग विभिन्न स्थलों पर विभिन्न अर्थों में होता है और यह आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक, वैयक्तिक, नैतिक आदि अर्थों को इंगित करता है। भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होने पर भी यह निश्चित है कि धर्म सदैव ही मानव की उन्नति का प्रबल अभिप्रेरक (Motivator) रहा है। धारण करना, व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'धर्म' शब्द 'धृ धारणे' धातु से बना है, जिसका अर्थ है बनाए रखना अथवा पुष्ट करना । 12 इसका तात्पर्य यह है कि धर्म वह तत्त्व है, जो सम्पूर्ण संसार के प्राणियों को दुःख से उठाकर उत्तम सुख की अवस्था में धारण करता है । 13 यह अनिष्ट स्थानों में भटकते जीवों को स्वर्ग - मोक्ष रूप इष्ट स्थानों में प्रतिष्ठित करता है। 14 यह झूठी मान्यता एवं राग-द्वेष आदि भावों से ग्रसित प्राणियों को ऊपर उठाकर निर्विकार शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थिर करता है ।' संक्षेप में, धर्म वह है, जो प्राणियों को निम्न पद से उच्च पद में स्थापित करता है। इस प्रकार धर्म प्रबन्धकीय-दृष्टि एक उपयोगी संसाधन है, जिसका सकारात्मक प्रयोग जीवन को उन्नति के पथ पर अग्रसर कर सकता है । 15 16 Jain Education International मौलिक तौर पर तो ‘धर्म' जीवन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है, किन्तु वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में धर्म की जो स्थिति है, उसे हम निम्न तीन विभागों में बाँट सकते हैं 7 जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व 2 — For Personal & Private Use Only 654 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy