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________________ 11.7 निष्कर्ष भोग एवं उपभोग जीवन की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। जैनआचारशास्त्र में इनका विस्तृत विवेचन किया गया है। फिर भी, संक्षेप में कहा जा सकता है कि जो वस्तुएँ एक बार ही प्रयोग में आती हैं, उन्हें भोग की वस्तुएँ तथा जो बार - बार उपयोग में आती हैं, उन्हें उपभोग की वस्तुएँ कहा जाता है। चूँकि मनुष्य एक सामर्थ्यवान् प्राणी है, अतः वह एक ओर भोगोपभोग की पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है, तो दूसरी ओर वह भोगोपभोग को सन्तुलित, सुमर्यादित एवं सुव्यवस्थित भी कर सकता है। जैनाचार्यों ने सदैव ही भोगोपभोग को मर्यादित करने का निर्देश दिया है, जिससे भोगोपभोग के अतिरेक से उत्पन्न होने वाले भयावह दुष्परिणामों से बचा जा सके। वस्तुतः, भोगोपभोग को सुमर्यादित करने की प्रक्रिया ही भोगोपभोग - प्रबन्धन है। भोगोपभोग–प्रबन्धन की समग्रता के लिए भोगोपभोग - प्रबन्धन की प्रक्रिया को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है – सैद्धान्तिक पक्ष एवं प्रायोगिक पक्ष । भोगोपभोग के प्रति सम्यक् दृष्टिकोण का निर्माण करना सैद्धान्तिक पक्ष की विषय वस्तु है, जिसमें हमने जाना कि मूलतः भोगोपभोग के तीन प्रकार हैं- अशुभ, शुभ एवं शुद्ध । इनमें से अशुभ भोगोपभोग को मर्यादित करना और शुभ भोगोपभोग में आवश्यक प्रवृत्ति करते हुए शुद्ध भोगोपभोग की प्राप्ति करना ही सम्यक् भोगोपभोग - प्रबन्धन का सन्मार्ग है। दूसरे शब्दों में कहें तो, बाह्य विषय-भोगों से निवृत्त होते हुए आत्मरमणता के आनन्द को प्राप्त करना ही भोगोपभोग - प्रबन्धन की सम्यक् प्रक्रिया है । प्रस्तुत अध्याय में अशुभ भोगोपभोग की असारता को जैनदृष्टिकोण से प्रतिपादित किया गया है, जिससे इसके प्रति मोहान्ध दृष्टिकोण का निवारण और सम्यक् दृष्टिकोण का निर्धारण हो सके । प्रायोगिक पक्ष में मुख्यतः हमने जाना कि जीवन-व्यवहार में किस प्रकार भोगोपभोग को अधिकाधिक मर्यादित किया जा सकता है। इस हेतु भोगोपभोग के लिए प्रयोग में आने वाली वस्तुओं का वर्गीकरण करके उनमें से त्याज्य वस्तुओं को त्यागने, न त्याग की जा सके उन वस्तुओं को सीमित करने और न सीमित हो सके उन्हें अनासक्त भावनापूर्वक अर्थात् खेदपूर्वक प्रयोग करने का निर्देश दिया गया है। इस क्रम का पालन करता हुआ व्यक्ति धीरे-धीरे अपने स्तर का उचित विकास कर सकता है। जैन साधना पद्धति के आधार पर यहाँ पाँच स्तर बताए गए हैं, जिनमें क्रमशः आगे बढ़ता हुआ जीवन–प्रबन्धक तीव्रभोगी दशा से मन्दभोगी, मन्दतरभोगी, मन्दतमभोगी दशा को पार करता हुआ, अन्ततः आत्मभोगी दशा की प्राप्ति कर सकता है। यहाँ हमें मूलतः जैनाचार्यों की एक महत्त्वपूर्ण दृष्टि प्राप्त होती है कि भोगोपभोग तो प्रत्येक प्राणी (आत्मा) की स्वाभाविक योग्यता है । आवश्यकता इस बात की है कि आत्मा को बाह्य विषयों से हटाकर स्वसम्मुख कर आत्मसुख की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किया जाए और अन्ततः साधना के द्वारा राग-द्वेष, मोह पर विजय प्राप्त करते हुए सहज, स्वाधीन, निर्विकारी, आत्मभोगी दशा को प्राप्त किया जाए, यही भोगोपभोग - प्रबन्धन का चरम लक्ष्य है। अध्याय 11 : भोगोपभोग-प्रबन्धन 649 Jain Education International For Personal & Private Use Only 37 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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