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________________ (घ) चतुर्थस्तर : मन्दतमभोगी - आध्यात्मिक शक्तियों का अतिविशिष्ट विकास होने पर ऐन्द्रिक-विषयों की आसक्ति सूख जाती है। केवल आत्म-साधना हेतु आहार-पानी आदि मूलभूत आवश्यकताएँ शेष रहती हैं और उसमें भी समितिपूर्वक (साध्वाचार की मर्यादा का पालन करते हुए) पूर्ति का प्रयत्न होता है। इस स्तर पर पहुँचकर साधक को निम्न प्रयत्न करने चाहिए - 1) हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन एवं परिग्रह – इन पाँचो अशुभ भोगों का पूर्ण परित्याग करना और __मुनि दशा में प्रवेश करना। 2) शरीर को मुक्ति (धर्म) का प्राथमिक साधन मानते हुए भोजनादि की पूर्ति मधुकरी चर्या से करना और धर्म विरुद्ध लोकाचरण नहीं करना । 119 3) शरीर की शोभा-विभूषा का सर्वथा परित्याग करना।120 . 4) पाँचों इन्द्रियों का गोपन करके समता की साधना करना। 5) विशेष तप आदि के द्वारा अप्रकट रूप से प्रवर्त्तमान पुरूष-स्त्री सम्बन्धी भोगेच्छा (पुरूषवेद , स्त्रीवेद एवं नपुंसकवेद) पर भी पूर्ण विजय प्राप्त करना। 6) स्त्री, सत्कार-पुरस्कार आदि बाईस प्रकार के परिषहों (विशेष प्रतिकूल परिस्थितियों) में विचलित नहीं होना और आत्मसुख में निमग्न रहना।21 7) आत्म-स्थिरता की अधिकाधिक वृद्धि का प्रयत्न करना। 8) राग-द्वेष, मोह पर पूर्ण विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना। स्वस्वरूप एकत्वता, साधे पूर्णानंद हो मित्त। रमे भोगवे आतमा, रत्नत्रयी गुणवृंद हो मित्त।।122 (ङ) पंचमस्तर : आत्मभोगी - इस दशा को वीतरागदशा या जीवनमुक्त दशा कहा जाता है। यह वह दशा है, जिसमें राग, द्वेष, मोह आदि विलय को प्राप्त हो जाते हैं और बाह्य भोगों अर्थात् शुभाशुभ भोगों की लालसा पूर्णतया समाप्त हो जाती है। अब कोई प्रयत्न शेष नहीं होता और लेशमात्र भी इच्छा शेष नहीं रहती। इसमें स्थित जीव भोगोपभोग-प्रबन्धन की उत्कृष्ट अवस्था तक पहुँच जाते हैं। इन्हें सयोगी केवली (प्रवृत्ति सहित परमात्मा) कहा जाता है। इनकी श्वासादि शारीरिक-क्रिया, अघाती कर्म सम्बन्धी कार्मिक-क्रिया एवं समवशरण, प्रातिहार्य आदि की रचना रूप पारिस्थितिक-क्रिया आदि स्वाभाविक रूप से होती रहती हैं, किन्तु ये एकमात्र शुद्ध , निराबाध, स्वाधीन, परिपूर्ण आत्मस्वरूप में स्थिर रहकर पूर्ण शुद्ध भोगों में तन्मय रहते हैं। यह दशा सांसारिक अवस्था के अन्तिम किनारे के रूप में होती है, जिसके पश्चात् जन्म-जरा-मरण आदि दुःखों की परम्परा सदा के लिए समाप्त हो जाती है और एक अडोल, अकम्प एवं परम-प्रशांत सिद्धावस्था (प्रवृत्ति रहित अशरीरी परमात्मदशा) की प्राप्ति हो जाती है, जिसमें परम-सुख का भोगोपभोग अनन्त काल तक होता रहता है। जैनदृष्टि से यही भोगोपभोग-प्रबन्धन का परम आदर्श रूप है। =====4.>===== 36 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 648 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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