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________________ (ङ) सम्यक् निर्णय के आधार पर चिन्तन - उपर्युक्त प्रक्रिया से चिन्तन करते हुए भी जो भोगेच्छाएँ शेष रह जाती हैं, उनका पुनः चिन्तन एवं निर्णय करना भी आवश्यक है। जैनाचार्यों की दृष्टि में हमें अपने उत्साह की अभिवृद्धि करते हुए ज्ञ-परिज्ञा द्वारा वस्तु को उसके स्वरूप के आधार पर समझना चाहिए एवं प्रत्याख्यान-परिज्ञा द्वारा अयोग्य विषयों को अनावश्यक मानकर परित्याग करना चाहिए।101 फिर भी जो भोग छोड़ा न जा सके, उनका सीमाकरण करना चाहिए और शेष रहे वे भोग जो थोड़े भी सीमित न किए जा सकें, उन्हें खेद, निन्दा एवं गर्हापूर्वक ही भोगना चाहिए। यह चिन्तन सदैव चलता रहे कि वस्तु केवल वस्तु होती है और चेतन का उससे वास्तव में (पारमार्थिक-दृष्टि से) कोई सम्बन्ध नहीं होता, फिर भी उसमें अच्छा-बुरा, प्रिय–अप्रिय, पसन्द-नापसन्द, सुरूप-कुरूप आदि मानना जीव की महान् भूल है, कल्पना मात्र ही है। आत्मज्ञान के द्वारा इस भूल का निवारण सम्भव है। जड़-चेतन की सब परिणति प्रभो! अपने-अपने में होती है। अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है।। 102 11.6.4 भोगोपभोग-प्रबन्धन के विभिन्न स्तर भोगोपभोग-प्रबन्धन की प्रक्रिया में साधक अपनी वर्तमान भूमिका के साथ न्याय करता हुआ उत्तरोत्तर उच्च भूमिकाओं की प्राप्ति करता जाता है। वह पदार्थ-आश्रित जीवन-दृष्टि को छोड़कर आत्म-आश्रित जीवन-दृष्टि को मुख्यता देता जाता है। इससे उसकी अशुभ-भोगोपभोग से निवृत्ति, शुभ-भोगोपभोग में अपेक्षाकृत प्रवृत्ति तथा निवृत्ति और शुद्ध भोगोपभोग में प्रवृत्ति क्रमशः बढ़ती जाती है। अन्ततः वह शुद्ध-भोगोपभोग की सर्वोच्च दशा को प्राप्त कर लेता है, जिसमें बाह्य भोगोपभोग की पराधीनता समाप्त होकर अशरीरी अवस्था की प्राप्ति हो जाती है। भोगोपभोग-प्रबन्धन की दिशा में बढ़ता हुआ जीवन-प्रबन्धक निम्न स्तरों को क्रमशः पार करता जाता है - (क) प्रथम स्तर : तीव्र भोगी - इस भूमिका का साधक विषय-भोगों का तीव्र अभिलाषी होता है। उसे इस स्तर से ऊँचा उठने के लिए निम्न प्रयत्न करने चाहिए - 1) सप्तव्यसन का अनिवार्य रूप से त्याग करना - शिकार, जुआ, चोरी, मांसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन एवं परस्त्रीगमन/परपुरूषगमन।103 2) सभी नशीले पदार्थों का सर्वथा त्याग करना, जैसे - सिगरेट, बीड़ी, पान-गुटखा, चरस, गांजा, अफीम, हेरोइन, शराब आदि। 3) काम-वासनाओं को उत्तेजित करने वाले भोगोपभोग के साधनों का सर्वथा त्याग करना, जैसे - अश्लील-साहित्य, अश्लील-चलचित्र, फूहड़-वार्ता, अश्लील-वेबसाइट, अश्लील-गीतश्रवण आदि।104 30 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 642 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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