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________________ भोगों के व्यसनों से जकड़ा हुआ व्यक्ति किस प्रकार अपना जीवन नष्ट करता है, इसे हम अन्य प्राणियों के दृष्टान्त के माध्यम से समझ सकते हैं – स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत होकर कामान्ध हाथी गड्ढे में गिरकर शिकारी के बन्धन में फँस जाते हैं, रसनेन्द्रिय के वशीभूत मछलियाँ काँटे में फँसकर मृत्यु को प्राप्त होती हैं, भ्रमर गन्ध के रसिक होकर कमल के भीतर ही मर जाते हैं, पतंगे नेत्रेन्द्रिय के वशीभूत होकर दीपक की लौ में जलकर मर जाते हैं और हिरण संगीत में मुग्ध होकर अपने प्राण गँवा देते हैं। जब एक-एक इन्द्रियों के विषय-भोग ही इतने दुःखदायी हैं, तो पाँच-पाँच इन्द्रियों के लोलुपी बनकर कितना दुःख भोगना पड़ेगा, यह एक सोचनीय विषय है। यह मान्यता भी उचित नहीं है कि जो भोग वर्तमान में प्राप्त हैं, उन्हें भोग लेना चाहिए, क्योंकि परलोक किसने देखा है। जैनाचार्य स्पष्ट कहते हैं कि विषयभोगों का सेवन रागपूर्वक होता है और जहाँ राग है, वहाँ कर्मों का बन्धन भी अवश्य होगा, इसीलिए यह मानना चाहिए कि भले ही हम भोगों को हँसते-हँसते क्यों न भोगें, लेकिन इनसे बन्धने वाले पापों के उदय से हमें रो-रो कर भी छुटकारा नहीं मिल सकेगा। वस्तुतः, वैरी तो इस जीवन में ही दुःखी करता है, किन्तु भोग तो करोड़ों जन्मों तक दुःखी करते रहते हैं।" इस जीवन में पापों को बाँधकर व्यक्ति चारों गतियों में परिभ्रमण करता हुआ अनन्त दुःखों को प्राप्त करता है। वह नरक में घोर वेदनाओं को, पशु तथा मानवगति में दुःखों को एवं देवगति में दुर्भाग्य को प्राप्त होता है। इस प्रकार, ये काम-भोग क्षणभर के लिए सुख रूप प्रतीत होते हुए भी वास्तव में सुख रूप तो नहीं होते, उल्टा चिरकाल तक दुःख देते रहते हैं।94 कहा भी गया है - अनंत सौख्य नाम दुःख, त्यां रही न मित्रता। अनंत दुःख नाम सौख्य, प्रेम त्यां विचित्रता।। उघाड न्याय-नेत्र ने निहाळ रे! निहाळ तुं। निवृत्ति शीघ्रमेव धारी ते प्रवृत्ति बाळ तु।। अर्थात् यह विचित्रता है कि जहाँ (आत्मा में) अनन्त सुख है, वहाँ दुःख मानकर यह जीव मित्रता नहीं कर रहा है और जहाँ (भोगों में) अनन्त दुःख है, वहाँ सुख मानकर प्रेम कर रहा है। रे जीव! अपने विवेक-चक्षु खोल और इन भोगों के दुष्परिणामों को जानकर इनसे निवृत्त हो। इस प्रकार, हमने भोगोपभोग-प्रबन्धन के सम्यक् दृष्टिकोण के निर्धारण हेतु आध्यात्मिक दृष्टि से चिन्तन किया और भोगों की असारता का निर्णय किया। यह इस बात के लिए प्रेरित करता है कि विषय-भोगों की वस्तुस्थिति का सच्चा बोध होने पर साधक को इनसे विरक्त हो जाना चाहिए। कहा भी गया है - जया पुण्णं च पावं च, बन्धं मोक्खं च जाणइ। तया निव्विंदिए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे।। 635 अध्याय 11: भोगोपभोग-प्रबन्धन 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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