________________
(3) अशुभ भोगोपभोग से दुःख ही दुःख – भोगोपभोग के बारे में केवल इतना ही मान लेना पर्याप्त नहीं होगा कि वे सुख के बजाय सुखाभास (काल्पनिक सुख) देते हैं। वस्तुतः, जैनाचार्यों की यह दृढ़ मान्यता है कि विषय-भोगों की लालसा के कारण व्यक्ति को अपार दुःख भोगने पड़ते हैं।' उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा है कि ये कामभोग भले ही मनोज्ञ एवं मनोरम महसूस होते हों, किन्तु ये किंपाक के जहरीले फलों के समान होते हैं, जो दिखने में तो बड़े रसीले और सुन्दर होते हैं, किन्तु परिणाम में जीवन का ही नाश कर देते हैं। आज एड्स रोगियों की अत्यन्त दुःखद स्थिति सहज ही इस बात को द्योतित करती है कि विषय-भोग किस हद तक व्यक्ति को दुःखी बना सकते हैं।
इन्द्रिय सुख की कामना, उपजाती है रोग।
‘साधक' संयम साधलो, तन मन रहे निरोग।।1 सच्चाई यह है कि इन कामभोगों का सेवन करते हुए अल्पकाल का सुखाभास मिलने के अतिरिक्त हमें दुःख ही दुःख मिलता है। जैनाचार्य कहते हैं कि इन कामभोगों का सेवन करने के पूर्व, सेवन करते हुए और सेवन करने के पश्चात् भी चिरकाल तक हमें दुःख ही प्राप्त होता है,82 जैसे ही व्यक्ति में भोगों की तृष्णा उत्पन्न होती है, वैसे ही उसका दुःख भी प्रारम्भ हो जाता है और जैसे-जैसे तृष्णा बढ़ती है, दुःख भी बढ़ता चला जाता है, यह तृष्णारूपी ज्वर सतत प्राणी को सन्तप्त करता रहता है। इस तृष्णा से व्याकुल प्राणी अपने ताप को मिटाने के लिए इन्द्रिय-भोगों में प्रवर्तित होता है। उसे यह भ्रम होता है कि भोगों को भोगने से तृष्णा मिट जाएगी, परन्तु इन भोगों को भोगते हुए भी तृष्णा मिटती नहीं है। कभी भोग-साधनों के वियोग का भय सताता है,84 तो कभी दूसरे साधनों को भोगने की तृष्णा जाग जाती है। चूंकि एक समय में एक ही विषय भोगा जा सकता है,85 अतः व्यक्ति द्वन्द्वात्मक स्थिति में बेचैन होता रहता है। इसी प्रकार वह कभी भोगों की मात्रा (Quantity), कभी गुणवत्ता (Quality), कभी विविधता (Variety), कभी विघ्न बाधाओं आदि से असन्तुष्ट बना रहता है और इसीलिए सेवन-काल में भी उसे पूर्ण तृप्ति नहीं होती। भोगों का सेवन करने के पश्चात् भी अथवा भोग सामग्रियों का असमय वियोग हो जाने पर भी व्यक्ति दुःखी हो जाता है। कहा गया है - ‘जो सुख (सुखाभास) भोगों का सेवन करते हुए मिलता है, उससे कई गुना अधिक दुःख भोगों का वियोग होने पर प्राप्त होता है। 86 वास्तव में व्यक्ति भोगों का आदी हो जाने से उन्हें छोड़ना ही नहीं चाहता, फिर भी ये दैववश छूट जाते हैं और इससे वह अत्यन्त दुःखी हो उठता है। आज धूम्रपान, गुटखा, मद्यपान, हुक्का-सेवन (शीशा), ब्राउन शुगर आदि की दुस्त्याज्यता से कौन परिचित नहीं है?
भोगों के सेवन से मन्द दुःख तो होता ही है, परन्तु कई बार तीव्र दुःख एवं यातनाएँ भी सहनी पड़ती हैं। भोग-तृष्णा के वश व्यक्ति घोर से घोर पापकर्म कर बैठता है और परिणामस्वरूप उसे सामाजिक बदनामी, पारिवारिक धिक्कार, कारावास, प्राणदण्ड आदि सजाएँ भी भुगतनी पड़ती हैं।87 अतः इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भोगों से दुःख ही दुःख प्राप्त होता है।
22
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
634
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org