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________________ 11.4 असन्तुलित, अमर्यादित एवं अव्यवस्थित भोगोपभोग-नीति (उपभोक्ता संस्कृति) के दुष्परिणाम उपभोक्ता-संस्कृति की कमियों के परिणामस्वरूप आज व्यक्ति और समाज दोनों ही अपने आदर्शों और मूल्यों को खोते जा रहे हैं और इससे व्यवहार जगत् में अनेक चिन्तनीय दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। आइए, इन दुष्परिणामों पर एक नजर डालें, जिससे हमें भोगोपभोग-प्रबन्धन की महत्ता का बोध हो सके - (1) विकास के नाम पर छलावा - उपभोक्तावाद यह भ्रान्ति फैलाता है कि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र आर्थिक-समृद्धि और भौतिक-सुख की ऊँचाइयों पर जा रहे हैं, जो कि वास्तविकता से परे हैं। आंकड़े भी बताते हैं कि वर्ष 1950-51 में देश का सकल-राष्ट्रीय उत्पाद 40,454 करोड़ रूपए और प्रतिव्यक्ति आय 1126 रूपए थी, जो वर्ष 1996-97 में बढ़कर क्रमशः 2,58,465 करोड़ रूपए तथा प्रतिव्यक्ति आय 2,761 रूपए हो गई। इससे यह प्रतीत होता है कि भारत में व्यक्ति और समाज अधिक सुखी और सम्पन्न हुए हैं, परन्तु वास्तविक स्थिति इससे भिन्न है। इस अवधि में जीवन-रक्षक वस्तुओं के मूल्य करीब दस गुना बढ़े हैं, जबकि आय मात्र ढाई गुना बढ़ी है। यह मात्र आँकड़ों की बाजीगरी है। आज आर्थिक-विषमता, आर्थिक-सत्ता का केन्द्रीकरण, वर्ग-विद्वेष , शोषण आदि की प्रवृत्तियाँ खूब बढ़ी हैं।" (2) आय–साधनों में विकृति - उपभोक्तावादी-संस्कृति ने व्यक्ति के भीतर स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा की भावना को अत्यधिक उत्तेजित किया है और इससे वह येन-केन-प्रकारेण अपने साध्य को सिद्ध करने में लगा है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था2 – 'तुम साधन की चिन्ता करो, साध्य अपने आप निष्पन्न होगा', किन्तु आज व्यक्ति साधन के औचित्य-अनौचित्य का चिन्तन किए बिना साध्य की सिद्धि में लगा है। उसकी दृष्टि में साधनों का औचित्य सिद्धि में निहित है, इससे ही आज चोरी, डकैती, हत्या, अपहरण, आतंक, भ्रष्टाचार आदि कुकृत्य बढ़-चढ़कर हो रहे हैं। इस प्रकार आय के साधनों की प्रामाणिकता धीरे-धीरे नष्ट होती जा रही है। (3) शारीरिक एवं मानसिक रोगों में वृद्धि - आज उपभोगों में संलग्न व्यक्ति अधिकाधिक उत्पादन एवं संग्रह करने की चाह रखता हुआ अपने आपको ही दाँव पर लगा रहा है, परिणामस्वरूप अव्यवस्थित दिनचर्या हो जाने से वह अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोगों से पीड़ित होता जा रहा है, जैसे - माइग्रेन, अनिद्रा, उच्चरक्तचाप, हृदयघात, ब्रेन हेमरेज, लकवा, मोटापा, हताशा, निराशा. हीन भावना. अवसाद. हिस्टीरिया आदि। कभी-कभी तो व्यक्ति आत्महत्या के लिए भी प्रवत्त हो जाता है। विश्व-स्वास्थ्य-संगठन के अनुसार, बढ़ती हुई उपभोक्ता-संस्कृति के कारण पूरे विश्व में आज लगभग 45 करोड़ लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्त हैं। मशीनीकृत होती जिन्दगी के कारण 623 अध्याय 11 : भोगोपभोग-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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