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________________ भोगवाद की ओर प्रवृत्त करती है, जबकि भोगोपभोग-प्रबन्धन आत्म-संयम की ओर प्रेरित करता है। उपभोक्ता संस्कृति के अनुसार, व्यक्ति को अधिक से अधिक वस्तुओं का उपभोग करना चाहिए, किन्तु भोगोपभोग-प्रबन्धन कम से कम सामग्रियों के उपयोग पर जोर देता है। उपभोक्तावादी जीवनदृष्टि में केवल भौतिक-मूल्यों का महत्त्व होकर नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के लिए न कोई सम्मान है और न ही कोई स्थान। किन्तु भारतीय संस्कृति पर आधारित भोगोपभोग-प्रबन्धन की दृष्टि में भौतिक एवं नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों के बीच सम्यक सामंजस्य का होना सर्वोच्च प्राथमिकता है। उपभोक्ता संस्कति की विडम्बना यह है कि व्यक्ति पहले भोगों की व्यवस्था के लिए सन्तप्त रहता है, फिर भोग करते हुए भी अतृप्त रहता है और अन्ततः भोगों का आदी हो जाता है, जिससे भोग उसके लिए अपरिहार्य हो जाते हैं, किन्तु भोगोपभोग-प्रबन्धन की विशेषता यह है कि व्यक्ति भोगों की आसक्ति को मर्यादित करता हुआ अन्ततः आसक्तिरहित हो जाता है। यह सत्य है कि उपभोक्तावादी-जीवनदृष्टि और भोगोपभोग-प्रबन्धन की दृष्टि में जीवन का लक्ष्य शान्ति और आनन्द की उपलब्धि है, फिर भी उपभोक्ता संस्कृति कहीं न कहीं भोगों को प्राथमिकता देकर उनमें शान्ति की तलाश करती है, जबकि भोगोपभोग-प्रबन्धन शान्ति को प्राथमिकता देकर मर्यादित भोगों को स्वीकार करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि उपभोक्तावादी जीवनदृष्टि एवं भोगोपभोग-प्रबन्धन दोनों में से कोई भी पदार्थ के उपयोग के लिए इंकार नहीं करता, फिर भी दोनों में मूलभूत अन्तर यह है कि पहली दृष्टि में, न तो उपभोग कोई विवशता है और न ही उसकी सीमा की आवश्यकता है, वह यह भी मानती है कि जीवन के लिए उपभोग नहीं, अपितु उपभोग के लिए जीवन है, जबकि दूसरी दृष्टि में, जीवन के लिए उपभोग करना एक विवशताजन्य आवश्यकता है, साथ ही उसका यह मानना है कि जीवन के लिए उपभोग है, न कि उपभोग के लिए जीवन। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि जहाँ एक ओर मूल्यवादी आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि से युक्त भोगोपभोग-प्रबन्धन एक सन्तुलित, सुव्यवस्थित और सुमर्यादित जीवनशैली की पहल करता है, वहीं दूसरी ओर भौतिकवादी उपभोक्ता संस्कृति एक असन्तुलित, अव्यवस्थित और अमर्यादित जीवनशैली की ओर ले जाती है। इस असन्तुलित, अमर्यादित एवं अव्यवस्थित भोगोपभोग की जीवनशैली के क्या दुष्परिणाम होते हैं, इस पर हमें गम्भीरता से विचार करना होगा और यह देखना होगा कि भोगोपभोग का सम्यक् प्रबन्धन करना क्यों और किस प्रकार से आवश्यक है? =====4.>===== 10 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 622 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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