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________________ 11.2 भोगोपभोग का जीवन में महत्त्व भोगोपभोग-प्रबन्धन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जीवन में भोगोपभोग का क्या महत्त्व है, इसका तुलनात्मक विश्लेषण करना अत्यावश्यक है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने भोगोपभोग का अत्यधिक महत्त्व माना है और निम्न बिन्दुओं द्वारा दर्शाया है - 1) भोगोपभोग के द्वारा व्यक्ति को सुख एवं सन्तोष की प्राप्ति होती है। 2) भोगोपभोग के द्वारा व्यक्ति के जीवन-स्तर (Living Status) की उन्नति होती है। 3) भोगोपभोग के द्वारा सभ्यता का विकास होता है। 4) भोगोपभोग के कारण राज्य की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है। 5) अनिवार्य भोगोपभोग के द्वारा जीवन-अस्तित्व बना रहता है। 6) भोगोपभोग के आधार पर सामाजिक–प्रतिष्ठा और सम्मान की प्राप्ति होती है।26 7) भोगोपभोग की वृद्धि के द्वारा उत्पादन, विनिमय, वितरण आदि अन्य आर्थिक क्रियाओं को गति मिलती है। 8) भोगोपभोग के द्वारा समाज में रोजगार के स्तर में वृद्धि होती है। 9) समस्त आर्थिक क्रियाओं का अन्तिम लक्ष्य भी भोगोपभोग है। कहा भी गया है - Consumption is the sole end and purpose of all production." 10) भोगोपभोग के द्वारा समाज में आर्थिक समानता स्थापित करने की दिशा में सहयोग मिलता है। इस प्रकार, आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, भोगोपभोग ही मानवीय क्रियाओं का आदि और अन्त है। आधारभूत बात यह है कि प्रत्येक मानवीय क्रिया का जन्म आवश्यकता (इच्छा) से होता है, आवश्यकता के आधार पर ही व्यक्ति माँग (Demand) करता है, माँग के आधार पर ही उत्पादन होता है, उत्पादन के आधार पर ही लोगों को रोजगार मिलता है और राष्ट्रीय-आय में वृद्धि होती है। मनुष्य की उपर्युक्त विचारधारा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए भगवान् महावीर को कहना पड़ा कि यह मनुष्य 'काम-कामी' है अर्थात् मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति उसकी कामनाओं से संचालित होती है।28 यद्यपि भौतिकवादी दृष्टि से उपर्युक्त बिन्दु उचित प्रतीत होते हैं, तथापि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने पर भोगोपभोग के विपक्ष में निम्नलिखित निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है - 1) भोगोपभोग की वृद्धि के कारण ही मनुष्य दुःखी और सन्तप्त होता है। 2) भोगोपभोग के अतिरेक में ही उसके जीवन स्तर की अवनति होती है। 3) भोगोपभोग के कारण ही व्यक्ति असभ्य और अशिष्ट व्यवहार करता है। 4) भोगोपभोग जहाँ अमर्यादित होता है, वहाँ राज्य की आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है। सन् 2008 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 618 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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