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इस विचारधारा से होने वाले दुष्परिणामों की चर्चा आगे की जाएगी।
द्वितीय विचारधारा के प्रणेता जैन-विचारकों सहित अन्य आध्यात्मिक-विचारक हैं, जो जीवन में केवल भौतिक मूल्यों को ही सम्पूर्ण नहीं मानते, अपितु नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को भी उचित सम्मान देते हैं। इनकी मान्यता है कि भोगोपभोग पराधीन वृत्ति है, क्योंकि इस हेतु बाह्य पदार्थों पर निर्भर होना पड़ता है, साथ ही इसके कई अन्य नकारात्मक पक्ष भी हैं, अतः भोगोपभोग को अनियंत्रित रूप से बढ़ाने के बजाय उसे घटाने का प्रयत्न करना ज्यादा उचित है। इनकी दृष्टि में विलासिताओं का त्याग करके आरामदायक जीवन भी जीया जा सकता है और आरामदायक जीवन को भी सीमित करते हुए अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भी जीवन-यापन किया जा सकता है। गृहस्थ अवस्था में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जो सादा-जीवन और उच्च-विचार के सिद्धान्त को साकार करते हुए जीवन का सुव्यस्थित निर्वाह करते हैं, जैसे – श्रीमद्राजचन्द्र , महात्मा गाँधी, विनोबा भावे आदि। अनिवार्य में भी अल्पतम आवश्यकताओं पर आधारित जैन-मुनि का जीवन एक ज्वलन्त उदाहरण है। इतना ही नहीं, जैन साधना पद्धति का चरम लक्ष्य मोक्ष (सिद्ध) पद की प्राप्ति है, जिसमें आहार, वस्त्रादि अनिवार्य आवश्यकताएँ भी समाप्त हो जाती हैं।
इस प्रकार संक्षेप में कहें, तो जैन साधना पद्धति यह मानती है कि बाह्य ऐन्द्रिक भोग दुःख के कारण हैं, 24 अतः इन्हें मर्यादित करते हुए आत्मिक-भोग की क्रमशः वृद्धि करनी चाहिए और भूमिकानुसार जितना भी इन्द्रिय-विषयों का सेवन करना पड़े, उसे मजबूरी मानकर ही करना चाहिए, उनके प्रति आसक्ति या राग-द्वेष का भाव नहीं रखना चाहिए।
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अध्याय 11: भोगोपभोग-प्रबन्धन
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