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________________ स के (Planning) से लेकर क्रियान्वयन (Implementation) तक प्रत्येक कार्य में इन तीनों बलों का अत्यधिक प्रयोग होता है और इसीलिए जीवन-प्रबन्धन इनके निषेधात्मक उपयोग को रोकने तथा सकारात्मक उपयोग को बढ़ाने का निर्देश करता है। (ग) श्वासोच्छवास (Respiration) - प्राणवायु को अन्दर खींचना और बाहर निकालना श्वासोच्छवास कहलाता है। यह दो प्रकार का होता है – बाह्य एवं आभ्यन्तर। बाह्य श्वासोच्छवास वह होता है, जो घ्राणेन्द्रिय के द्वारा ग्रहण किया जाता है और स्पष्टतया अनुभव में आता है, जबकि आभ्यन्तर श्वासोच्छवास वह होता है, जो बाह्य प्राणवायु को ग्रहण करके उसे श्वासोच्छवास के रूप में सम्पूर्ण शरीर में संचरित करता है, इसे स्थूल रूप से महसूस नहीं किया जा सकता। इन दोनों प्रकार के श्वासोच्छवास का जीवन में विशिष्ट महत्त्व है। आधुनिक आयुर्विज्ञान में श्वासोच्छवार सन्दर्भ में कहा गया है कि यह रक्त-शोधन की प्रक्रिया के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर को सक्रिय रखता है। प्राचीन दर्शनों विशेषतया योगदर्शन में भी प्राणायाम आदि की प्रक्रिया को जो महत्त्व दिया गया है, वह भी श्वासोच्छवास के महत्त्व को इंगित करता है। जहाँ तक जैन जीवन-प्रबन्धन का प्रश्न है, इसमें भी श्वासोच्छवास की शुद्धता, नियमितता एवं सहजता को एक आवश्यक अंग माना गया है, क्योंकि इससे शारीरिक-स्वस्थता एवं मानसिक स्थिरता की प्राप्ति होती है। (घ) आयु (Life Time) - वह प्राण, जिसके सद्भाव से आत्मा एक शरीर में रहती है और जिसका अभाव हो जाने पर आत्मा एवं शरीर पृथक्-पृथक् हो जाते हैं, उसे आयु कहते हैं। आयु के निमित्त से आत्मा पशु-पक्षी आदि अनेक प्रकार के जीवनरूपों को धारण करती है। आयु जीवन का आधार है और प्रतिक्षण क्षीण होती जाती है। यह कब समाप्त हो जाए, यह अनिश्चितता ही जीवन-प्रबन्धन के लिए सजग होने की प्रेरणा देती है। उत्तराध्ययनसूत्र आदि में इसीलिए जीवन की क्षणभंगुरता को बारम्बार समझाकर नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करने का निर्देश दिया गया है। जीवन-प्रबन्धन का लक्ष्य भी यही है कि व्यक्ति अपनी आयु का सर्वोत्तम सदुपयोग करे। इस प्रकार, निश्चय और व्यवहार प्राण प्राणीमात्र के जीवन के आधार हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति में प्राणों के महत्त्व को दर्शाते हुए कहा गया है कि एक समान उम्र, शक्ति तथा साधन वाले दो व्यक्तियों में परस्पर युद्ध होने पर एक हार जाता है और दूसरा जीत जाता है। इसका कारण यह है कि प्राण-शक्तिसम्पन्न (सवीर्य) व्यक्ति जीत जाता है और प्राण-शक्तिहीन (वीर्यहीन) हार जाता है। यहाँ प्राण-शक्ति (वीर्य) से अभिप्राय उस प्रचण्ड ऊर्जा-शक्ति से है, जो उत्साह, उमंग, साहस, पराक्रम, मनोबल या संकल्प बल के रूप में उभरती है। अतः जीवन-प्रबन्धन के लिए प्राण-शक्ति का सम्यक् दिशा में नियोजन और प्रवर्तन अत्यावश्यक कार्य है। वस्तुतः, निश्चय और व्यवहार प्राणशक्तियों को उद्देश्यविहीन कार्यों से हटाने तथा सोद्देश्य कार्यों में प्रवर्तित करने से ही जीवन का सर्वोत्तम सदुपयोग हो सकता है और यही जीवन-प्रबन्धन का लक्ष्य है। सारांश यह है कि जीवन-प्रबन्धन प्राण-शक्तियों के सम्यक् नियोजन पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। अध्याय 1 : जीवन-प्रबन्धन का पथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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