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(2) व्यवहार-प्राण - निश्चय-प्राण के समान व्यवहार–प्राण का भी अपना विशिष्ट महत्त्व है। यद्यपि यह सत्य है कि निश्चय-प्राण जीवन का अंतरंग (वास्तविक) आधार है और व्यवहार-प्राण जीवन का बाह्य (आरोपित) आधार है, फिर भी व्यवहार-प्राण के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। कारण यह है कि किसी जीवित प्राणी के मूर्त स्वरूप (शरीर) के माध्यम से ही अमूर्त स्वरूप (आत्मा) की अनुभूति तक पहुँचना सम्भव है। जीवन-प्रबन्धन के लिए भी समस्त व्यवहार प्राणों का अनुशासित प्रवर्तन अपेक्षित है, क्योंकि ये न केवल जीवन के लक्षण हैं, अपितु जीवन जीने के उपयोगी साधन भी हैं। ये व्यवहार–प्राण यद्यपि पौद्गलिक अर्थात् जड़ पदार्थ हैं, फिर भी इन्हें जीवन का लक्षण माना गया है, क्योंकि जीवन में चेतना की अभिव्यक्ति इन्हीं के माध्यम से देखी जाती है। पंचास्तिकाय में व्यवहार–प्राण का लक्षण इस प्रकार से वर्णित है - जो प्राण पुदगलान्वित अर्थात पदगल से रचित हैं. किन्तु जिनमें चेतना की धारा प्रवाहित है, वे व्यवहार–प्राण कहलाते हैं। इसी प्रकार र कहा गया है कि पुद्गल द्रव्य से उत्पन्न जो इन्द्रियाँ आदि हैं, उनका चेतना के माध्यम से प्रवर्तन ही व्यवहार–प्राण है।4 अन्यत्र भी व्यवहार–प्राण के सन्दर्भ में कहा गया है कि ये पुद्गल (जड़) की ही संरचना हैं और इसीलिए रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि शक्तियों से युक्त हैं। यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक होगा कि व्यवहार-प्राण सामान्य जड़ पदार्थों से इस अर्थ में भिन्न है कि इनमें चेतना प्रवाहित होती है।
व्यवहार प्राणों के दस भेद हैं। गोम्मटसार में इनका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, एक श्वासोच्छ्वास और एक आयु – ये दस प्राण हैं। इनका वर्णन इस प्रकार
(क) इन्द्रिय (Senses) - सांसारिक जीवों के लिए जानने का साधन ‘इन्द्रिय' कहलाती है। ये इन्द्रियाँ पाँच प्रकार की होती हैं – स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र। व्यक्ति इन इन्द्रियों के माध्यम से प्रतिसमय बाह्य जगत् की सूचनाएँ प्राप्त करता है और प्राप्त ज्ञान के आधार पर अपना जीवन-व्यवहार चलाता है। अधिकांश प्राणी इन इन्द्रियों का अनावश्यक कार्यों में उपयोग करते हैं और जीवन में अपेक्षित सफलता से वंचित रह जाते हैं, अतः इन्द्रियों का सम्यक् दिशा में सम्प्रयोग जीवन-प्रबन्धन का एक आवश्यक तत्त्व है और इसीलिए जीवन-प्रबन्धन इन्द्रिय-व्यापारों के सम्यक् दिशा में नियोजन की विधि भी बताता है। (ख) बल (Power) - शरीर में शक्ति का उपचय (एकत्रित रूप) ही बल है। वस्तुतः, बल, सामर्थ्य , पराक्रम अथवा स्थाम - ये सभी एकार्थवाची हैं। यह तीन प्रकार का होता है - मनोबल, वचनबल और कायबल।" व्यक्ति मनोबल के माध्यम से गुण-दोषों का विचार, मनन एवं स्मरण आदि करने, वचनबल के माध्यम से सूचनाओं और भावों को अभिव्यक्त करने तथा कायबल के माध्यम से आहार, विहार आदि विविध प्रकार के कार्यों को करने में समर्थ होता है। जीवन-प्रबन्धन में नियोजन
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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