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________________ अर्थ के सम्यक् प्रबन्धन के लिए परिग्रह - वृत्ति की अवधारणा को समझना भी आवश्यक है, जिससे उसकी मर्यादा का उचित निर्धारण किया जा सके। परिग्रह मूलतः दो शब्दों से मिलकर बना है 'परि' एवं 'ग्रह' । परि का अर्थ है सभी ओर से या सम्पूर्ण रूप से और ग्रह का अर्थ है करना । अतः कहा भी गया है कि जो सम्पूर्ण रूप से ग्रहण किया जाता है, वह परिग्रह होता है परिग्रहणं परिग्रहः | 149 ग्रहण 150 इस प्रकार, परिग्रह का मूल सम्बन्ध वस्तुओं से नहीं, बल्कि उनके प्रति मूर्च्छा भाव से है । इसी आधार पर आचार्य शय्यम्भव और आचार्य उमास्वाति ने कहा भी है कि वस्तुस्वरूप की असावधानी होने से वस्तुओं के प्रति मूर्च्छा भाव होना ही परिग्रह है । आशय यह है कि सजीव, निर्जीव या मिश्र, अल्प अथवा अधिक और प्राप्य अथवा अप्राप्य वस्तुओं पर ममत्व, आसक्ति एवं गृद्धता रखना परिग्रह है।151 विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी । यदि मूर्च्छा है, तो परिग्रह है और मूर्च्छा नहीं है, तो परिग्रह भी नहीं है । 152 यह मूर्च्छा (परिग्रह) वस्तुतः एक भावात्मक जुड़ान या सम्बन्ध है और व्यक्ति के दुःखों का कारण भी । जहाँ जुड़ान है, वहीं राग-द्वेष है, जहाँ राग-द्वेष है, वहीं अपेक्षाएँ हैं और जहाँ अपेक्षाएँ हैं, वहाँ अस्थिरता, चंचलता, चिन्ता, तनाव, शोक, भय आदि नकारात्मक भाव हैं और वहीं दुःख भी है। यह भी अनुभूत सत्य है कि जब भी कोई दुःखी होता है, तब उसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति के निमित्त से होता है, जिससे उसने कोई सम्बन्ध बना रखा होता है। यह विशेष है कि दूरवर्ती सम्बन्धों में अल्प दुःख तथा निकटवर्ती सम्बन्धों में अधिक दुःख होता है । इस प्रकार, मूर्च्छा भाव और दुःख का सीधा (आनुपातिक) सम्बन्ध है। यह मूर्च्छा भाव अनेक प्रकार के सम्बन्धों के आरोपण से उत्पन्न होता है, जिनमें से प्रमुख हैं 1) एकत्व भाव आत्मा के बजाय शरीर को 'मैं' मानना । 2) ममत्व भाव 3) कर्तृत्वभाव मैं हूँ' । 4) भोक्तृत्व भाव - 40 - 5 ) स्वामित्व भाव Jain Education International भोगने वाला मैं हूँ' । - — किसी वस्तु के बारे में मानना कि 'यह मेरी है' । किसी वस्तु के बारे में मानना कि 'इसका कर्त्ता अर्थात् सर्जक या संहारक आदि - किसी वस्तु किसी वस्तु के बारे में मानना कि इससे प्राप्त परिणामों का भोक्ता अर्थात् - के बारे में मानना कि 'इसका स्वामी या अधिकारी मैं हूँ' । वस्तुतः मूर्च्छा ही परिग्रह है, किन्तु मूर्च्छा के निमित्त होने से उन बाह्य पदार्थों को भी परिग्रह कहा जाता है, जिनका मूर्च्छा से वशीभूत व्यक्ति ग्रहण एवं संग्रह करता है। इसी आधार पर परिग्रह का वर्गीकरण आगे किया जा रहा है जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only 568 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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