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________________ 10.6 जैनआचारमीमांसा के आधार पर अर्थ-प्रबन्धन का प्रायोगिक पक्ष अर्थ-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक पक्ष के माध्यम से अर्थ के सन्दर्भ में जैन अवधारणा को समझा और यह पाया कि अर्थ सम्बन्धी भौतिक दृष्टिकोण को न तो पूर्णतया स्वीकारा जा सकता है और न ही नकारा जा सकता है। अतः सम्यक् अर्थ-प्रबन्धन के लिए भौतिक दृष्टिकोण के साथ आध्यात्मिक दृष्टिकोण का उचित समन्वय भी अत्यावश्यक है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि अर्थ-प्रबन्धक को अर्थ के प्रति अन्ध-आसक्ति से ऊपर उठना होगा और उसे अर्थ को साध्य-पद से हटाकर साधन-पद पर प्रतिष्ठित करना होगा, तभी वह अर्थ के अतिरेक से बचकर उसका उचित सीमाकरण कर सकेगा। इस हेतु उसे अर्थ को जीवन में केवल औषधि के समान ही महत्त्व देना चाहिए। जैसे शरीर में व्याधि होने पर औषधि के प्रयोग को नकारा नहीं जा सकता, वैसे ही आत्मिक दर्बलता की स्थिति में भोगादि की इच्छाएँ अधिक होने से अर्थ के अर्जन एवं प्रयोग से इंकार नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार, जैसे औषधि की नियत मात्रा में आवश्यकता केवल उपचार हेतु होती है, किन्तु सदा के लिए नहीं, वैसे ही अर्थ की आवश्यकता सिर्फ जीवन की सीमित (भूमिकानुरूप) आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ही होनी चाहिए, किन्तु वह जीवन की सदा काल रहने वाली मूलभूत आवश्यकता नहीं बननी चाहिए। जिस प्रकार, रोग के क्रमशः ठीक होने पर औषधि की आवश्यकता कम होती जाती है, उसी प्रकार, आत्मिक सबलता के बढ़ने पर भोगादि की कामनाएँ क्षीण होती जाती हैं और इससे अर्थ की आवश्यकता भी कम होती जानी चाहिए। साथ ही, जैसे औषधि का लम्बे काल तक सेवन करने के उपरान्त भी रोगी की दवाई के प्रति मूर्छा एवं ममता जाग्रत नहीं होती, वैसे ही आवश्यकतानुसार अर्थ का उपार्जन और उपयोग करने के बाद भी अर्थ के प्रति अर्थ-प्रबन्धक की ममता एवं मूर्छा जाग्रत नहीं होनी चाहिए। यहाँ तक कि जैसे औषधि का क्रय करते समय व्यक्ति धन के अनावश्यक अपव्यय से बचता है, वैसे ही अर्थ की प्राप्ति हेतु पुण्य के अपव्यय और पर्यावरण के अतिदोहन से प्रबन्धक को बचना चाहिए। अन्त में यह कहना भी आवश्यक होगा कि जैसे दवाई की मात्रा क्रमशः अल्प करते हुए पूर्ण आरोग्य की प्राप्ति का ही लक्ष्य होता है, वैसे ही अर्थ की आवश्यकता को क्रमशः अल्प करते हुए मोक्ष रूप स्वाधीन एवं सुखी परमात्म–अवस्था (पूर्ण आरोग्य दशा) की प्राप्ति ही अर्थ-प्रबन्धक का लक्ष्य होना चाहिए। इस प्रकार, यह जैनदर्शन के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण पर आधारित एवं सम्यक् अर्थ-प्रबन्धन के लिए उपयुक्त एक सामंजस्यपूर्ण एवं मर्यादित जीवन-व्यवहार हो सकता है। 10.6.1 परिग्रह एवं उसकी अवधारणा पूर्व अध्ययन के आधार पर अर्थ के सन्दर्भ में यह कारण-कार्य व्यवस्था ज्ञात होती है कि पदार्थाश्रित जीवन-दृष्टि होने से व्यक्ति में आन्तरिक इच्छाएँ पैदा होती हैं। ये इच्छाएँ ही आवश्यकताओं को जन्म देती हैं और तदनुसार ही सामग्रियों या पदार्थों की माँग उत्पन्न होने लगती है, इसे ही जैनदर्शन में 'परिग्रह-वृत्ति' कहते हैं। 567 अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन ७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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