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________________ अतृप्त इच्छाएँ पहले की अपेक्षा और अधिक दुःख रूप सिद्ध होती हैं। इस प्रकार, यह अर्थ व्यक्ति के दुःखों का ही कारण है। इससे व्यक्ति स्वयं भी दुःखी होता है और जो स्वयं दुःखी होता है, वह दूसरों को भी दुःखी करता है (आतुरा परितावेन्ति)।145 यह प्राप्त होने से पहले भी दुःख देता है, प्राप्त होकर भी दुःख देता है और छूटने के बाद भी दुःख ही देता है। 146 प्रश्नव्याकरणसूत्र में अर्थ (परिग्रह) सम्बन्धी प्रयत्न को वृक्ष की उपमा देते हुए कहा गया है कि इस वृक्ष की जड़ तृष्णा है, क्रोध, मान, माया और लोभ इसके स्कन्ध हैं, अनेक प्रकार की चिन्ताएँ इसकी शाखाएँ हैं। इन्द्रियों के काम-भोग इसके पत्ते, फूल तथा फल हैं तथा अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक क्लेश इस वृक्ष का कम्पन है।147 अतः जीवन-प्रबन्धन के लिए आवश्यक है कि हम ऐसे वृक्ष के विस्तार पर यथाशक्ति अंकुश लगाएँ। यद्यपि हम अर्थ के सुखद परिणामों की कल्पना में ही जीते रहते हैं, लेकिन वास्तविकता इससे विपरीत ही होती है, एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इस बात की पुष्टि के लिए पर्याप्त है - अर्थ-पुरूषार्थ का परिणाम हम क्या पाने की कल्पना करते हैं? वास्तव में क्या पाते हैं? परतन्त्रता चिन्ता स्वतन्त्रता निश्चिन्तता सुरक्षा शान्ति सन्तोष भय बेचैनी असन्तोष निराशा थकान प्रसन्नता विश्रान्ति सुविधा पारिश्रमिक बाधा परिश्रम सम्मान दुआ अधिकार निर्भारता अपमान बद्दुआ दायित्व बोझिलता सार रूप में, कहा जा सकता है कि धन आदि से व्यक्ति साधन-सम्पन्न तो हो सकता है, लेकिन सुख-सम्पन्न नहीं। जैनाचार्यों ने लोभान्ध व्यक्ति की दुःखी दशा को इस प्रकार से चित्रित किया है - 'जिसका चित्त लोभ से लम्पट हो रहा हो, जिसे लेशमात्र भी सन्तोष न हो, जो सदा हाय-हाय कर रहा हो और तृष्णा से व्यथित हो, उसे क्या कभी सुख मिल सकता है?148 वस्तुतः यह कल्पना 565 अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन 37 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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