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________________ सिद्ध किया है कि अर्थ और सुख दोनों भिन्न-भिन्न हैं और इसीलिए दुःख-विमुक्ति को जीवन-लक्ष्य बताकर दुःखवर्धक कारणों को हटाने और सुखवर्धक कारणों को अपनाने पर जोर दिया है। (ख) अर्थ से दुःख की प्राप्ति अर्थ में सुख तो है ही नहीं, प्रत्युत अर्थ की लालसा और तृष्णा ही व्यक्ति के दुःखों की मूल जड़ है। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि जिस अर्थ को आज संसार अपने सुखी जीवन का महत्त्वपूर्ण आधार मानता है, भगवान् महावीर के अनुसार, उसी अर्थ की आसक्ति व्यक्ति के दुःखों का कारण है। अर्थ का आकर्षण ही दुःखों को आमंत्रण है। अतः यह विचार भ्रमपूर्ण और निराधार है कि अर्थ सुखदायी है, वस्तुतः वह तो दुःख रूप ही है। कहा भी गया है – “भवतण्हा लया वुत्ता, भीमाभीम फलोदया' अर्थात् बाह्य अर्थ की तृष्णा भयंकर फल देने वाली लता के समान है। 42 जैनाचार्यों ने इसीलिए अनेकानेक स्थानों पर आशा, तृष्णा और स्वच्छन्दता का त्याग करने का उपदेश दिया है। 143 इस उपदेश का लक्ष्य भी इतना ही है कि व्यक्ति धन के प्रति अपनी अति-आसक्ति का विसर्जन करे, समीचीन दृष्टि का सृजन करे और भूमिकानुसार सन्तुलित अर्थोपार्जन करे। इस प्रकार अर्थ-प्रबन्धन का जीवन्त सूत्र बने – 'जितनी आवश्यकता, उतना ही धन'। यह सदैव स्मरण रहे कि आवश्यकता से अधिक और अनुपयोगी वस्तुएँ क्लेशकारी एवं दोषरूप होती हैं। 144 अतः अर्थ की आवश्यकता का निर्धारण देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के आधार पर होना चाहिए। (ग) अर्थजन्य दुःखों के विविध रूप व्यक्ति अर्थ-सम्बन्धी अनेक प्रयत्न करता है। इनका पृथक्-पृथक् विश्लेषण करने पर यह सिद्ध होता है कि अर्थ की आसक्ति का परिणाम दुःख ही है। यह निम्नलिखित तथ्यों से सुस्पष्ट है - ★ अर्थ-प्राप्ति की कामना या तृष्णा साक्षात् दुःख रूप है। * अर्थ-प्राप्ति के लिए योजनाएँ बनाना (संरम्भ) दुःख रूप है। ★ अर्थ-प्राप्ति के लिए संसाधनों को इकट्ठा करना (समारम्भ) दुःख रूप है। ★ अर्थ-प्राप्ति के लिए योजनाओं का क्रियान्वयन प्रारम्भ करना (आरम्भ) दुःख रूप है। ★ कार्य के क्रियान्वयन की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाले बाधक कारण भी दुःख रूप हैं। ★ अर्थ-प्राप्ति के पश्चात् उसकी सुरक्षा, संग्रह एवं रख-रखाव भी दुःख रूप हैं। ★ संगृहीत अर्थ की उत्तरोत्तर वृद्धि करने का प्रयत्न भी दुःख रूप है। ★ अर्थ-प्राप्ति की प्रक्रियाओं में हुए पापाचार भी ऐहलौकिक एवं पारलौकिक दुःख के ही कारण हैं। ★ प्राप्त अर्थ का भोगोपभोग भी क्षणिक सुख के पश्चात् चिरकालिक दुःख का ही कारण है। ★ प्राप्त अर्थ का व्यय, चोरी या अन्य किसी कारण से होने वाला वियोग भी दुःख रूप ही है। ★ अर्थ प्राप्ति के पश्चात् भी उसी अर्थ से अपेक्षित सुख की प्राप्ति न होने पर दूसरे अर्थ से सम्बन्धित तृष्णाएँ जन्म लेती हैं, जो पुनः नवीन दुःख का कारण बनती हैं, कभी-कभी तो ये 36 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 564 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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