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राजनीतिक विसंगतियाँ उत्पन्न हो रही हैं। इस तरह सर्वांग समीक्षा करने पर आधुनिक अर्थनीति की सफलता पर अनेक सवाल खड़े हो जाते हैं। संक्षेप में, इस अर्थनीति को हम सर्वथा गलत नहीं, किन्तु असन्तुलित, अमर्यादित एवं अव्यवस्थित अर्थनीति कह सकते हैं। इसका पर्यालोचन करना ही प्रस्तुत अनुच्छेद का उद्देश्य है, जिससे सम्यक् अर्थनीति के निर्माण का आधार बन सके एवं जीवन में अर्थ का सम्यक् प्रबन्धन हो सके।
आधुनिक अर्थनीति की विसंगतियों को निम्न बिन्दुओं से समझा जा सकता है - (1) आधुनिक अर्थनीति के आधारभूत बिन्दु * आधुनिक अर्थनीति पूर्णतया भौतिकवादी है, जिसमें नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों के लिए कोई
स्थान नहीं है। ★ इसमें आध्यात्मिक विकास तो दूर की बात, मानवीय दृष्टिकोण की भी उपेक्षा की जा रही है। ★ इसमें एकान्त से अर्थ को सर्वोच्च मूल्य मान लिया गया है, क्योंकि इसकी दृष्टि में अर्थ संसार
की समस्त शक्तियों का केन्द्र है।98 ★ इसके अनुसार, जीवन का लक्ष्य सिमटकर सिर्फ अर्थ तक ही सीमित हो जाता है। ★ इसमें समृद्धि, सुविधा और विलासिता को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है, क्योंकि इन्हें ही
जीवन-स्तर (Status) की उन्नति का मापदण्ड मान लिया गया है। * यहाँ अंतरंग सम्पन्नता के स्थान पर बाह्य-सम्पन्नता को ही समृद्धि एवं अमीरी का पैमाना मान लिया गया है, क्योंकि आधुनिक अर्थशास्त्रियों की दृष्टि में वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि
ही विकास का सूचक है। ★ इसका एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है – 'इच्छाओं को बढ़ाओ, अपना माल खपाओ और धन कमाओ',91 क्योंकि अर्थशास्त्री ऐसा मानते हैं कि इच्छा से आवश्यकता बढ़ती है और आवश्यकता से बाजार में माँग। माँग बढ़ने से पूर्ति के प्रयत्न बढ़ते हैं। पूर्ति हेतु अधिक परिश्रम करके तथा अधिक संसाधनों का दोहन करके अधिक उत्पादन किया जाता है। यह उत्पादन ही उपभोक्ताओं की उद्दीप्त इच्छाओं की सन्तष्टि करता है, जिससे वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। ★ इसमें न केवल इच्छाओं को बढ़ाने का प्रयत्न किया जाता है, अपितु इच्छाओं को अनियंत्रित
एवं असीम बनाने पर भी जोर दिया जाता है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों का मुख्य सूत्र ही है - 'अनियंत्रित इच्छाएँ ही हमारे लिए कल्याणकारी और विकास का हेतु है। जहाँ
इच्छाओं को नियंत्रित करेंगे, वहाँ विकास ही अवरुद्ध हो जायेगा।92 ★ इसमें इच्छाओं के सीमाकरण की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए बढ़ती हुई इच्छाएँ असंयमित,
अनियंत्रित एवं असीम हो जाती हैं। उपभोक्ता की किसी वस्तुविशेष को लेकर उत्पन्न इच्छा एक बार के उपभोग से ही सदा के लिए शान्त नहीं हो जाती। यद्यपि उपभोग के पश्चात् वस्तु की
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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