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________________ 10.4 असन्तुलित, अमर्यादित एवं अव्यवस्थित अर्थनीति के दुष्परिणाम जीवन में अर्थ के महत्त्व का सम्यक् निर्धारण करने के साथ-साथ सन्तुलित, सुमर्यादित एवं सुव्यवस्थित सम्यक् अर्थनीति का निर्माण करना भी अत्यावश्यक है। मेरी दृष्टि में, इस अर्थनीति के तीन पक्ष होने चाहिए, जो इस प्रकार हैं - ★ सन्तुलित अर्थनीति - वह नीति, जिसमें अर्थ के साथ-साथ जीवन के अन्य आवश्यक पहलुओं, जैसे - शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार, समाज, धर्म, अध्यात्म आदि को उचित महत्त्व दिया जाए, सन्तुलित अर्थनीति है। इसमें किसी भी आवश्यक पहलू की न एकान्त से गौणता होती है, न मुख्यता, बल्कि साम्य (Equilibrium) होता है। इसका एक सुन्दर उदाहरण महात्मा गाँधी के जीवन में झलकता है, जो नियमित रूप से प्रातः सात बजे सूत कातने के लिए चरखा चलाते थे (अर्थ क्रिया), सायं सात बजे प्रभु-प्रार्थना में डूब जाते थे (धर्म क्रिया) और शेष समय अपने बाकी कर्तव्यों का निर्वाह करते थे। ★ सुमर्यादित अर्थनीति – वह नीति, जिसमें मानवीय, सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक सभी मानदण्डों की मर्यादा के अनुरूप आर्थिक क्रियाएँ की जाएँ, सुमर्यादित अर्थनीति है। इसमें आर्थिक क्रियाकलापों के अतिरेक पर अंकुश लगाकर उचित आवश्यकताओं की पूर्ति का लक्ष्य होता है। आर्थिक-प्रक्रियाओं में साधन-शुद्धि, साध्य-शुद्धि, विधि-शुद्धि, स्थान-शुद्धि , समय-शुद्धि आदि के मापदण्ड सुनिश्चित किए जाते हैं। इसमें अर्थ का अर्जन कैसे करना? क्यों करना? किस प्रक्रिया से करना? कहाँ करना? कब करना? आदि का सुनिर्धारण किया जाता है। ★ सुव्यवस्थित अर्थनीति - वह नीति, जिसमें अर्थ की संप्राप्ति सुगमता, सहजता, सुप्रबन्धता, सुज्ञता और सुक्रमता के साथ की जाए, सुव्यवस्थित अर्थनीति है। यह अर्थोपार्जन के विविध साधनों – व्यक्ति, पूंजी, प्रबन्ध, भूमि आदि के सुसमन्वय पर जोर देती है। 10.4.1 आधुनिक युग में विद्यमान असन्तुलित, अमर्यादित एवं अव्यवस्थित अर्थनीति वर्तमान में व्यक्ति ने प्रत्येक क्षेत्र में विकास किया है, आर्थिक क्षेत्र में भी वह समृद्धि, सम्पन्नता एवं सुविधा की अधिकाधिक प्राप्ति हेतु अग्रसर है। भौतिकवादी दृष्टिकोण से देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवन-स्तर में हुई अभिवृद्धि वर्तमान की सफल अर्थनीति का ही सुपरिणाम है। उत्पादन, वितरण एवं उपभोग सभी क्षेत्रों में अपूर्व उन्नति हुई है। सड़क, बिजली, दूरसंचार, परिवहन, जल, आवास आदि सुविधाएँ सुलभता से उपलब्ध हो रही हैं, यह सब आधुनिक अर्थनीति की ही देन है। किन्तु, आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टिकोण से देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति आज कोरा भौतिकवादी एवं व्यक्तिवादी (Self-centred) होता जा रहा है। उसकी सेवा, सहयोग और सहृदयता की भावनाओं में दिनोंदिन कमी होती जा रही है। इससे अनेकानेक वैयक्तिक, सामाजिक एवं अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन 547 10 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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