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________________ अर्थोपार्जन करना अवश्यंभावी हो जाता है। अन्यथा वह भूख-प्यास रूप शारीरिक-वेदना तथा अपयश, अनादर, अप्रीति रूप मानसिक-वेदना से प्रभावित होकर असमाधि एवं अवसाद से ग्रस्त हो जाता है। साथ ही वह धर्म एवं मोक्ष से भी विमुख होकर नहीं चाहते हुए भी विसंगतियों का शिकार हो जाता है। ऐसी अवांछनीय स्थिति से बचने के लिए तथा मोक्षानुकूल धर्म–साधना की अभिवृद्धि के उद्देश्य से साधक को न्याय-नीतिपूर्वक ही अर्थ-पुरूषार्थ करना चाहिए। इस प्रकार अर्थ परोक्ष-साधन के रूप में उपयोगी सिद्ध होता है। इस न्यायोपार्जित अर्थ के प्रति जैनदर्शन में सम्माननीय दृष्टिकोण है। डॉ. सागरमलजैन ने कहा है, “जो धर्म-अर्थ-काम परस्पर समन्वित होकर मोक्षाभिमुख होते हैं, वे जैनदर्शन के अनुसार आचरणीय हैं और जो मोक्ष-विमुख होते हैं, वे निश्चित रूप से अनाचरणीय एवं हेय हैं।"58 उपर्युक्त आशय को स्पष्ट करने के लिए निम्नलिखित प्रमाण पर्याप्त हैं - ★ आर्य भद्र (ईसा की द्वितीय शताब्दी) के अनुसार, धर्म-अर्थ-काम को भले ही अन्य विचारक परस्पर विरोधी मानते हों, किन्तु जिनवाणी के अनुसार औचित्यपूर्ण ढंग से प्रयुक्त होने पर ये परस्पर अविरोधी हो जाते हैं। इस प्रकार, भूमिकानुसार किए जाने वाले धर्म-कार्य, स्वच्छ आशययुक्त अर्थ एवं सुमर्यादित काम परस्पर अविरोधी होते हैं। * डॉ. सागरमल जैन के अनुसार, “जैनदर्शन में अर्थ एवं काम को एकान्त से हेय नहीं माना गया है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो भगवान् ऋषभदेव स्त्रियों की चौसठ तथा पुरूषों की बहत्तर कलाओं का विधान क्यों करते?"70 ★ एक प्राकृत-सूक्ति के अनुसार, ब्राह्मण को ज्ञान से, क्षत्रिय को असि (सुरक्षाकार्य) से, वणिक को वाणिज्य से तथा कर्मशील को शिल्पादि से धनार्जन करना चाहिए।' ★ जैन-परम्परा में मोक्षमार्ग के आराधकों के चार अंग मान्य हैं - साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका। जहाँ साधु-साध्वी आर्थिक क्रियाकलापों को विराम देकर, गृह-त्याग कर मोक्षमार्ग की आराधना करते हैं, वहीं श्रावक-श्राविका गृहस्थ रहकर आवश्यकता एवं भूमिकानुसार अर्थोपार्जन करते हुए मोक्षमार्ग का अभ्यास करते हैं। यह संघ-व्यवस्था इस बात की द्योतक है कि जैनदर्शन में मोक्षमार्ग की निचली कक्षा में अर्थ का निषेध न करके मोक्षमार्ग की साधना के साथ उसका समन्वय किया गया है। ★ प्राचीन जैनशास्त्रों में अर्थशास्त्र सम्बन्धी अनेक उल्लेखों का मिलना अर्थ के महत्त्व को और अधिक स्पष्ट करता है, जैसे - • अर्थ प्राप्ति से सम्बन्धित शास्त्रों को 'अत्थसत्थ' अर्थात् अर्थशास्त्र कहा गया है। • निशीथचूर्णी में अर्थार्जन करने की प्रक्रिया को 'अठ्ठप्पत्ति' कहा गया है। 4 • प्रश्नव्याकरण से ज्ञात होता है कि उस काल में अर्थशास्त्र विषयक ग्रंथ लिखे जाते थे। 16 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 544 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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