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________________ 10.3 जैन जीवनदृष्टि में अर्थ का महत्त्व जैन जीवनदृष्टि भी मूलतः निवृत्ति-प्रधान एवं आध्यात्मिक विचारधारा है। अर्थ के सन्दर्भ में इसका दृष्टिकोण अन्य आध्यात्मिक विचारधाराओं के समान ही है। इसमें भी अर्थ के प्रति सापेक्षिक दृष्टिकोण ही अपनाया गया है, जिसे हम इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं - 10.3.1 अर्थ का स्थान : साध्य की दृष्टि से पूर्णतः निवृत्ति-प्रधान होने के कारण जैनदर्शन यह मानता है कि मोक्ष ही जीवन का परम-पुरूषार्थ एवं परम-साध्य है। इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम पुरूषार्थ मूलतः अनाचरणीय एवं हेय हैं। धर्म-पुरूषार्थ को भी विनाशी (अशाश्वत्) एवं संसार परिभ्रमण का कारण मानकर हेय कहा गया है, क्योंकि धर्म-पुरूषार्थ के फलस्वरूप अधिक से अधिक स्वर्ग के भोगों की प्राप्ति ही हो सकती है और पुण्य का भोग पूर्ण हो जाने पर जीव पुनः संसार–परिभ्रमण के चक्र में फँस जाता है। फिर भी मोक्ष का साधन होने से इसकी उपयोगिता को स्वीकारा भी गया है। दूसरे शब्दों में, मोक्षानुकूल धर्म की उपादेयता को जैनाचार्यों ने मान्यता दी है। इसी कारण जैनदर्शन में मोक्ष एवं धर्म पुरूषार्थों पर बल या है। मोक्ष को परम-साध्य एवं धर्म को मोक्ष का साधन माना गया है। अतः यह निष्कर्ष अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि साध्य की दृष्टि से अर्थ एवं भोग दोनों का जैनदर्शन में कोई स्थान नहीं है। इसकी पुष्टि निम्नलिखित उद्धरणों से प्राप्त होती है - ★ धर्म, अर्थ और काम नाशसहित तथा संसार-रोगों से युक्त हैं, अतः साधक को केवल मोक्ष का प्रयत्न ही करना चाहिए। ★ धर्म, अर्थ और काम से परम सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती, अतः मोक्ष-प्रयत्न ही श्रेष्ठ है। ★ अर्थ और काम अशुभ हैं, अर्थ से इसलोक और परलोक सम्बन्धी दोष होते हैं, जिनका दुष्परिणाम मनुष्य (कर्ता) को भोगना पड़ता है। अतः अर्थ ही अनर्थ का कारण है तथा मोक्ष-प्राप्ति में अर्गला (दरवाजे की सिटकिनी या आगल) के समान अवरोधक है। ★ चार पुरूषार्थों में से केवल मोक्ष-पुरूषार्थ ही समीचीन, सुखदायी और सदा ध्रुव (स्थिर) रहने वाला श्रेष्ठ पुरूषार्थ है। शेष तीनों विपरीत स्वभावी हैं और इसीलिए त्याज्य हैं। इनमें धर्म को छोड़कर शेष दो तो मोक्ष के साधन भी नहीं हैं। 10.3.2 अर्थ का स्थान : साधन की दृष्टि से यद्यपि जैनाचार्यों ने साध्य के रूप में मोक्ष एवं साधन के रूप में धर्मपुरूषार्थ को स्वीकार किया है, किन्तु अर्थ एवं काम को सर्वथा हेय नहीं माना है। स्वच्छ आशययुक्त अर्थ को जैनदर्शन में मोक्षानुकूल साधना के लिए एक परोक्ष साधन के रूप में स्थान दिया गया है। ___ यदि कोई साधक धर्म एवं मोक्ष पुरूषार्थ के प्रति पूर्ण समर्पित तथा तत्पर हो, तो उसे अर्थ की किसी भी प्रकार से आवश्यकता नहीं होती, किन्तु ऐसी योग्यता के अभाव में उसे भूमिकानुसार 543 अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन 15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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