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________________ जैनदृष्टि में, व्यक्ति और समाज दोनों को आगे बढ़ने के लिए पारस्परिक सहयोग के साथ-साथ आदर्शों (मूल्यों) का सम्यक् निर्धारण भी करना होगा। वस्तुतः, सम्यक् समाज-प्रबन्धन अर्थात् सामाजिक प्रगति किसी एक निश्चित दिशा में निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए होनी चाहिए, यह जैन मान्यता का वैशिष्ट्य है। पाश्चात्य समाज-दर्शन में सामाजिक प्रगति के तीन तत्त्वों को प्रमुख माना गया है 56 - 1) प्रकृति पर विजय (Conquest of Nature), 2) सामाजिक नियन्त्रण (Social Control) एवं 3) आत्मनियन्त्रण (Self Control) | जैनधर्मदर्शन के अनुसार, सामाजिक प्रगति का अर्थ प्रकृति पर विजय नहीं, अपितु प्रकृति के सहयोग से प्रगति करना है। इसी प्रकार, सामाजिक नियन्त्रण को संघीय नियन्त्रण के रूप में स्वीकार अवश्य किया गया है, किन्तु यह माना गया है कि संघीय नियन्त्रण केवल बाह्य होता है, इसका मूल आधार तो आत्मसंयम एवं आत्मनियन्त्रण है। इसीलिए वह यह मानता है कि आत्मसंयम एवं आत्मनियन्त्रण के आधार पर ही सामाजिक प्रगति सम्भव है। 9.4.2 समाज-प्रबन्धन का मूल उद्देश्य समाज व्यक्ति के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है, परन्तु यदि इस साधन का सम्यक् उपयोग नहीं किया जाए, तो यही साधन व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी बाधा भी बन सकता है। इससे यह निश्चित होता है कि व्यक्ति को सम्यक् विचारपूर्वक अपने सभी सामाजिक व्यवहार करने चाहिए, क्योंकि समाज व्यक्तियों से बना है और व्यक्तियों का व्यक्तित्व बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव से भरा होता है, इसे समझ पाना इतना आसान नहीं है। असजगतापूर्वक किया गया सामाजिक व्यवहार जीवन-प्रबन्धन के प्रयत्नों को विफल भी कर सकता है। अतएव व्यक्ति को सामाजिक सम्बन्धों की संवेदनशीलता को स्वीकार करके समाज-प्रबन्धन का सम्यक उद्देश्य निर्धारित करना चाहिए। मेरी दृष्टि में, व्यक्ति को चाहे परिवार में जीना पड़े या धार्मिक और लौकिक परिवेश में, उसे हर समय अपने जीवन व्यवहार को संयमित करते हुए तीन उद्देश्यों की पूर्ति में सहयोगी बनना चाहिए - 1) समाज में शान्ति 2) समाज में सुसंस्कारों का संरक्षण 3) समाज की प्रगति इन तीनों में भी सबसे प्रथम आवश्यकता शान्ति की है, क्योंकि यदि शान्ति नहीं है, तो न तो संस्कारों का संरक्षण हो सकता है और न ही सामाजिक प्रगति। द्वितीय स्थान संस्कारों का है, क्योंकि यदि व्यक्ति एवं समाज के व्यवहार में सु–संस्कार नहीं होंगे, तो न तो शान्ति टिक सकेगी और न ही प्रगति हो सकेगी। अन्तिम आवश्यकता है प्रगति की, क्योंकि मनुष्य एक प्रगतिशील प्राणी है और 509 अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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