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________________ 9.4 जैनआचारमीमांसा के आधार पर समाज प्रबन्धन 9.4.1 समाज-प्रबन्धन : एक परिचय जैनधर्मदर्शन की यह मान्यता है कि जगत् के भौतिक एवं अभौतिक समस्त पदार्थ निरन्तर परिवर्तनशील हैं और समाज भी इससे अछूता नहीं है। एक संघीय धर्म होने के नाते जैनाचार्यों ने इस सामाजिक परिवर्तन को समाज-प्रबन्धन के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता बताया है। उनके अनुसार, यह जरुरी नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन हमेशा विघटनकारी एवं नुकसानदायी ही होते हों, ये संघटनकारी एवं लाभदायी भी हो सकते हैं। वस्तुतः, विघटन से संगठन की दिशा में आगे बढ़ने की इस सकारात्मक प्रक्रिया का नाम ही समाज-प्रबन्धन है। दूसरे शब्दों में, समाज-प्रबन्धन समाज में उचित मूल्यों, आदर्शों, नियमों एवं व्यवहारों की स्थापना करने की प्रक्रिया है। और भी स्पष्ट कहें तो, वह प्रक्रिया जो समाज में व्याप्त बुराइयों, कुरीतियों एवं अन्धरूढ़ियों का उन्मूलन कर एकता, शान्ति एवं सामंजस्य का सम्यक् विकास करती है, समाज-प्रबन्धन कहलाती है। जैनदर्शन के अनुसार, व्यक्ति और समाज परस्पर एक-दूसरे से अभिन्न हैं, अतः समाज-प्रबन्धन के क्षेत्र में यह प्रश्न अहमियत रखता है कि समाज-प्रबन्धन या सामाजिक सुधार की प्रक्रिया कहाँ से प्रारम्भ हो, व्यक्ति से अथवा समाज से? इस सम्बन्ध में हमें दो प्रकार की विचारधाराएँ मिलती हैं। एक यह मानती है कि व्यक्ति के सुधार से ही समाज सुधरेगा, क्योंकि व्यक्ति समाज की महत्त्वपूर्ण एवं प्राथमिक इकाई है और दूसरी मान्यता यह है कि समाज सुधार के माध्यम से व्यक्ति का सुधार होगा, क्योंकि समाज के नीति-नियमों पर ही व्यक्ति आश्रित रहता है। यह सत्य है कि समाज एक अमूर्त व्यवस्था है, जिसकी अभिव्यक्ति व्यक्तियों के समूहों से होती है, अतः जैनदर्शन यह मानता है कि व्यक्ति सहित समाज के सभी घटकों (संस्था, समिति आदि) के प्रबन्धन से ही समाज-प्रबन्धन सम्भव है। इस मान्यता का एक कारण यह भी है कि समाज-प्रबन्धन के सूत्र जिन पर लागू होते हैं, वे तो व्यक्ति अथवा व्यक्ति-समूह ही हैं। विशेषता यह है कि जैनधर्म मूलतः निवृत्ति-प्रधान होने के बावजूद भी एक संघीय धर्म है और इसमें व्यक्ति की अपेक्षा संघ को अधिक महत्त्व दिया गया है, अतः यह मानना होगा कि जैनआचारमीमांसा के अनुसार, संघ (साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका वर्ग) सम्बन्धी व्यवहारों का प्रबन्धन ही समाज-प्रबन्धन है। समाज-प्रबन्धन के लिए मूल्य और आदर्श का निर्धारण करना भी अनिवार्य है। साथ ही यह भी विचारणीय है कि किस प्रकार से इन मूल्यों की प्राप्ति सम्भव हो सकती है? जैनदर्शन में इस हेतु हमें 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् 55 सूत्र बताया गया है, जिसका तात्पर्य है कि प्रत्येक प्राणी का जीवन अन्य प्राणियों के सहयोग पर आधारित है। इससे स्पष्ट है कि The law of life is the law of cooperation अर्थात् पारस्परिक सहयोग के माध्यम से ही जीवन यात्रा प्रवाहित होती है। साथ ही, एक मूल्यवादी आध्यात्मिक धर्म होने के कारण जैनदृष्टि यह भी मानती है कि समाज के प्रबन्धन का आधार न केवल भौतिक मूल्य, अपितु नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य भी होने चाहिए। इस प्रकार जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 18 508 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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