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________________ (2) पारिवारिक तनाव की वृद्धि – परिवार में सदस्यों के बीच सद्भावना के स्थान पर अशान्ति तथा कलह का वातावरण बढ़ रहा है। इससे पति-पत्नी, भाई-भाई, पिता-पुत्र, सास-बहू, ननद-भाभी आदि के बीच दूरियाँ बढ़ रही हैं। इसके अनेक कारण हैं, जैसे - सदस्यों के जीवन-लक्ष्यों में अन्तर, सदस्यविशेष में अतिमहत्त्वाकांक्षा (High Ambitions) का होना, व्यक्तिगत व्यवहार में भेद, मनोवृत्तियों में विकृतियाँ (अहंकार आदि), यौन सम्बन्धों में मतभेद, शैक्षणिक योग्यता में फर्क, सांस्कृतिक अन्तर, सामाजिक-सम्बन्धों में अन्तर इत्यादि। इनमें एक महत्त्वपूर्ण कारक परस्पर गलतफहमी का होना भी है।42 (3) तलाक - आज तलाक की दर भी तेजी से बढ़ रही है, इससे न केवल पति और पत्नी, अपितु बच्चों की समस्या भी गम्भीर होती जा रही है। ऐसे बच्चे प्रायः अपराधी, चोर, जुआरी, शराबी, नशेड़ी आदि बन जाते हैं। इसके प्रमुख कारण हैं - ससुराल में बहू को प्रताड़ित किया जाना, माता-पिता, सास-ससुर का अनावश्यक हस्तक्षेप होना, पति या पत्नी का दुराचारी होना इत्यादि। यह आश्चर्यजनक है कि एक शोध के अनुसार, अमेरिका जैसे विकसित देश में प्रत्येक सात विवाह में से तीन विवाह का अन्त विवाह-विच्छेद के रूप में होता है। (4) शहरीकरण - आज ग्रामीण शहरों की ओर और शहरी महानगरों की ओर दौड़ रहे हैं, जिससे कई सामाजिक समस्याएँ खड़ी हो रही हैं, जैसे – बड़े नगरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ना, प्राकृतिक संसाधनों की सम्यक् आपूर्ति न हो पाना, परिजनों से दूरी बढ़ना, भौतिकवादी संस्कृति से नैतिक मूल्यों का पतन होना इत्यादि। (5) आर्थिक असन्तोष – आज छोटे-बड़े अनेक उद्योग, व्यापार, कार्पोरेट संगठन आदि खुल रहे हैं, व्यक्ति की समृद्धि एवं सम्पन्नता भी बढ़ रही है, स्त्री-पुरूष दोनों ही कन्धे-से-कन्धा मिलाकर अर्थोपार्जन में जुटे हुए हैं, उदारीकरण और वैश्वीकरण से पूरा विश्व ही एक व्यापारिक केन्द्र या ग्राम (Global Village) बन गया है। फिर भी, व्यक्ति को सन्तोष नहीं है और इसीलिए कालाबाजारी, मिलावट, गबन, घोटाले, रिश्वतखोरी एवं अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा बढ़ती ही जा रही हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में हर व्यक्ति स्वयं शासक और अन्यों को गुलाम बनाने की चेष्टा करता है। इससे आर्थिक विषमता भी तेजी से बढ़ रही है और शोषक के विरुद्ध शोषितों के बगावत के स्वर गूंज रहे हैं। इसी प्रकार, समाजवादी व्यवस्था भी असन्तोष का कारण बन रही है, क्योंकि उसमें न तो व्यक्ति की योग्यता का उचित पुरस्कार उसे मिल रहा है और न ही भावी विकास की सम्भावनाएँ उसे दिखाई दे रही हैं। आज जितनी भी आर्थिक संस्थाओं/समितियों की गोष्ठियाँ होती हैं, उनमें भी प्रायः स्वार्थपरक चर्चाएँ ही होती हैं, न कि समाजहित की। अपने आर्थिक लाभ के लिए इनमें सब नियमों, मूल्यों एवं मर्यादाओं का उल्लंघन करके निर्णय किए जाते हैं। 14 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 504 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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