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________________ 9.3 सामाजिक अव्यवस्था के दुष्परिणाम आधुनिक युग में सामाजिक विसंगति (Social Anomic) की अवधारणा का बहुत महत्त्व है। जब समाज के स्थापित मूल्यों एवं आदर्शों और नवीन परिवर्तित मूल्यों एवं आदर्शों के बीच तालमेल या संगति नहीं हो पाती, तब समाज की उस दशा को सामाजिक विसंगति या नियमहीनता की स्थिति कहा जाता है। श्री दुः/म के अनुसार, 'व्यक्ति की समाज से अनेक आशाएँ एवं आवश्यकताएँ होती हैं, किन्तु जब ये पूरी नहीं होती, तो व्यक्ति में निराशा, असन्तोष एवं बदले की भावना पनप जाती है और वह समाज द्वारा स्थापित नियमों को अस्वीकार कर देता है तथा इस प्रकार से व्यवहार करता है कि उसका यह व्यवहार विसंगति या नियमहीनता का परिचायक बन जाता है।"38 जब समाज में विसंगति उत्पन्न होती है, तब इसका प्रभाव समाज की संगठनात्मक व्यवस्था पर भी पड़ता है। सामाजिक संगठन में दरारें आने लगती हैं और सामाजिक-विघटन का बीजारोपण होने लगता है। प्रत्येक व्यक्ति और समूह अपने-अपने स्वार्थों की अधिकतम पूर्ति करने में लग जाता है, जिससे वह सामूहिक हितों की ओर जरा भी ध्यान नहीं दे पाता। ऐसी स्थिति में व्यक्ति और समूहों की एकमतता (Concensus) नष्ट हो जाती है और अधिकांश व्यक्ति सामाजिक विषयों एवं समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न ही नहीं करते। इससे सामाजिक-विघटन की स्थिति और अधिक तेजी से बढ़ने लगती है। समाज एक जटिल (Complex) व्यवस्था है। जब-जब भी इसमें सामाजिक विघटन की गति तीव्र होती है, तब-तब इसका दुष्परिणाम एकांगी नहीं, अपितु समग्र रूप से दिखाई देता है। जहाँ एक ओर व्यक्ति का व्यक्तित्व टूटने लगता है और परिवार में तनाव एवं मनमुटाव की स्थिति निर्मित होती है, वहीं दूसरी ओर समुदाय में हिंसा, आगजनी, तोड़-फोड़, बेकारी, कालाबाजारी, भ्रष्टाचारादि पनपने लगते हैं। फलतः सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था चरमराने लगती है। आज व्यक्ति भले ही भौतिक उन्नति के कीर्तिमान स्थापित कर रहा है, लेकिन नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यहीनता भी अपने चरम उत्कर्ष पर है और इसके परिणाम भी सामने दिखाई दे रहे हैं। आज की सामाजिक अव्यवस्था के कुछ मुख्य दुष्परिणाम इस प्रकार हैं – (1) संयुक्त परिवार का विघटन – संयुक्त परिवार प्रणाली भारत की आदर्श व्यवस्था रही है, जो प्रायः विश्व में अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती। किन्तु, आज यह प्रणाली तेजी से टूट रही है और एकल परिवार प्रणाली (Nuclear Family System) स्थापित हो रही है। इसके अनेक कारण हैं, जैसे - शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, व्यक्तिवादी दृष्टिकोण, पारिवारिक कलह इत्यादि।41 503 अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन 13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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