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________________ 5) इसकी इकाइयों में कार्य-प्रणाली का एक विशिष्ट क्रम होता है। इस कार्य-प्रणाली के अभाव में केवल इकाइयों के झुण्ड मात्र से सामाजिक संरचना नहीं बन जाती, जैसे - ईंट, चूने एवं पत्थर के ढेर से ही मकान नहीं बन जाता। इससे स्पष्ट है कि सामाजिक संरचना सामाजिक-प्रबन्धन का एक आवश्यक तत्त्व है। यदि व्यक्ति उचित सामाजिक संरचना का निर्माण करे और उचित भूमिका में कार्य करते हुए उचित ढंग से अपना दायित्व निर्वाह करे, तो वह जीवन को निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सकता है और इस प्रकार सामाजिक संगठन का स्तर ऊँचा उठ सकता है। वस्तुतः, यही सामाजिक-प्रबन्धन का सन्तुलित एवं सुव्यवस्थित रूप है। सामाजिक संरचना की बात जब आती है, तब चिन्तन की विविध पद्धतियों का जन्म सहज ही हो जाता है और जहाँ चिन्तनशीलता होती है, वहाँ प्रबन्धन का सम्बन्ध भी सहज हो जाता है। किसी व्यक्ति के लिए सामाजिक संरचना में निम्नलिखित बिन्दु चिन्तन के विषय बन सकते हैं - 1) उद्देश्य का निर्धारण करना, जिसकी पूर्ति के लिए सामाजिक इकाइयों का परस्पर सम्बन्ध बनाना पड़ रहा हो। 2) सामाजिक संरचना के लिए उचित इकाइयों का ग्रहण करना और अनुचित इकाइयों का त्याग करना। 3) चयन की गई इकाइयों में से प्रत्येक की स्थिति एवं कार्यों का निर्धारण करना। 4) जो इकाइयाँ भली-भाँति कार्य नहीं कर रही हों, उन्हें कार्य के प्रति प्रेरित करना। यदि वे फिर भी कार्य न करें, तो उन्हें निष्कासित करना। इस प्रकार, सामाजिक संरचना वास्तव में सामाजिक-प्रबन्धन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जिन पर सामाजिक एवं वैयक्तिक सफलता की प्राप्ति निर्भर है। 9.2.2 समाज के विभिन्न रूप या प्रकार सामान्यतया समाज दो अर्थों में प्रयुक्त होता है - व्यापक अर्थ (Macro Level) में और सीमित अर्थ (Micro Level) में। व्यापक अर्थ में समाज सम्पूर्ण मानव समाज है, जिसके अन्तर्गत सभी समुदायों, समितियों, संस्थाओं आदि का समावेश हो जाता है, किन्तु सीमित अर्थ में समाज किसी विशेष प्रयोजनों से संगठित हुए लोगों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध का सूचक है, जैसे – परिवार, कार्यालय, विद्यालय आदि । जहाँ तक व्यापक समाज की बात है, वहाँ सामाजिक संरचना भी व्यापक होती है, किन्तु सीमित समाज के विषय में सामाजिक संरचना भी सीमित होती है। सीमित सामाजिक संरचना का अर्थ यह हुआ कि एक ही व्यक्ति विविध सामाजिक संरचनाओं की इकाई भी हो सकता है और अपने प्रत्येक उद्देश्य की पूर्ति के लिए विविध इकाइयों से सम्बन्ध स्थापित भी कर सकता है। उदाहरणार्थ, जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 498 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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