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224 पर्यावरणबोध, सं.डॉ.कल्पनागांगुली, पृ. 115 225 दशवैकालिकसूत्र, 6/44 226 एगं अन्नयरं तसं पाणं हणमाणे अणेगे जीवे हणइ।
__ - व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, 9/34 227 दशवैकालिकसूत्र, 6/43 228 वही, 8/17 229 उपासकदशांग और उसका श्रावकाचार, सुभाष कोठारी, पृ.
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230 विषवाणिज्यं जीवघात प्रयोजनं शस्त्रादि विक्रयोपलक्षणं -
उपासकदशांगसूत्रटीका, अभयदेवसूरि (उपासकदशांग और
उसका श्रावकाचार, सुभाष कोठारी, पृ. 140 से उद्धृत)। 231 डॉ.सागरमलजैन अभिनन्दनग्रन्थ, पृ. 578 232 जूअं मज्जं मंसं वेसा पारद्धि चोर परयारं।
दुग्गइ गमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि।।
- वसुनंदिश्रावकाचार, पृ. 59 233 जैननीतिशास्त्र एक परिशीलन, आ.देवेन्द्रमुनि, पृ. 232 234 न्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोक हितायते
- धर्मबिन्दु, 1/4 235 उत्तराध्ययनसूत्र : दार्शनिक अनुशीलन, सा.डॉ.विनीतप्रज्ञाश्री,
पृ. 598 236 पर्यावरणबोध, सं.डॉ.कल्पनागांगुली, पृ. 121 237 जैनभारती (पत्रिका), अंक 6, जून, 2005, पृ. 31 238 डॉ.सागरमलजैन अभिनन्दनग्रन्थ, पृ. 578 239 आचारांगसूत्र, 1/3/4/4 240 उत्तराध्ययनसूत्र : दार्शनिक अनुशीलन, सा.डॉ.विनीतप्रज्ञाश्री,
पृ. 592 241 मेरीभावना, गाथा 5 एवं 10 242 बृहद्कल्पभाष्य, 4584 243 आनंदस्वाध्यायसंग्रह, बृहत्शांतिस्तोत्र, पृ. 34-38
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अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन
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