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________________ (ख) शिकार – इन दिनों वन्य एवं जलीय जीवों का शिकार बढ़ता जा रहा है। इससे पर्यावरण की जैविक-सम्पदा घटती जा रही है, जो चिन्ता का विषय है। अनियंत्रित शिकार से विशेषकर व्हेल मछली का अस्तित्व खतरे में है, स्पर्म व्हेल तो गिनती की रह गई हैं (स्पर्म व्हेल से एक अत्यन्त सुगन्धित पदार्थ 'अगर' मिलता है, जो बहुत महंगा होता है)। जलीय जीवों की हिंसा से जल-प्रदूषण बढ़ता जा रहा है एवं जलीय-परितन्त्र (Aqueous Ecosystem) का सन्तुलन भंग हो रहा है। इसी प्रकार दाँत, फर, चमड़े, मांस आदि के लिए वन्य-प्राणियों की लगातार हिंसा हो रही है, जिससे वन्य-परितन्त्र (Forest Ecosystem) का सन्तुलन संकट में आ रहा है। जैनदर्शन में गृहस्थ धर्म की पहली शर्त ही है – शिकार एवं मांसाहार का पूर्ण त्याग। 32 यहाँ गृहस्थ को न व्यवसाय के लिए और न मनोरंजन के लिए शिकार की अनुमति है। यह सोचनीय है कि यह कैसा मनोरंजन है कि हम दूसरे प्राणियों के प्राण ही ले लें। मनोरंजन तो वह है कि आप स्वयं भी प्रसन्न रहें और दूसरों को भी खुशी बाँटें । 233 इसी प्रकार, मार्गानुसारी गुणों के अन्तर्गत पहला ही नियम है - न्यायनीतिपूर्वक धनार्जन करना अर्थात् शिकार आदि अमानवीय कार्य किए बगैर धनार्जन करना।234 (ग) मांसाहार - आज तेजी से बढ़ती हुई मांसाहार की प्रवृत्ति न केवल बाह्य पर्यावरण को प्रदूषित एवं असन्तुलित कर रही है, वरन् जीवन की पवित्रता, सद्गुण, सदाचरण एवं संयम को भी नष्ट कर रही है। यदि अनेकान्त-दृष्टिकोण से देखें, तो हम पाएँगे कि मांसाहार मानव जाति पर कलंक है, वैज्ञानिक दृष्टि से यह महारोगों का जनक है, आर्थिक दृष्टि से महंगा है, प्राकृतिक दृष्टि से पर्यावरण को प्रदूषित करता है, धार्मिक दृष्टि से दुर्गतिप्रदाता है एवं शारीरिक दृष्टि से दुःपाच्य है, इसीलिए मांसाहार का त्याग प्रत्येक मानव का एक अनिवार्य कर्त्तव्य होना चाहिए।235 पर्यावरण एवं स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से शाकाहार का औचित्य आज स्वयं वैज्ञानिक भी स्वीकार कर रहे हैं। वैज्ञानिकों का स्पष्ट कहना है कि एक मांसाहारी शाकाहारी की तुलना में दस गुना अधिक वनस्पति-उत्पादों को खाता है। मांसाहारी जिन पशुओं पर निर्भर होता है, वे वनस्पति खाते हैं। पशु वनस्पति खाकर जितनी ऊर्जा ग्रहण करता है। उसका नब्बे प्रतिशत वह अपने हलन-चलन-पाचन प्रक्रिया में व्यय कर देता है एवं दस प्रतिशत ही मांस के रूप में संचित कर पाता है। इस प्रकार मांसाहारी अप्रत्यक्ष रूप से दस गुना वनस्पति ग्रहण करता है। इसी प्रकार, एक शाकाहारी 0.72 एकड़ भूमि से जीवन-यापन कर सकता है, जबकि एक मांसाहारी के लिए 1.63 एकड़ जमीन की जरुरत होती है। इसी तरह से देखें, तो अमेरिका में एक किलो गेहूँ उत्पादन के लिए 50 गैलन जल की आवश्यकता होती है, जबकि इतने ही गौमांस के लिए 10,000 गैलन पानी चाहिए। अतः कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों ने शाकाहार की दृढ़तापूर्वक पुष्टि कर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण उपकार किया है। यदि मांस निर्यात कर विदेशी मुद्रा कमाने के लिए कत्लखानों को बढ़ावा नहीं दिया जाए, तो सिर्फ पशुधन का ही संरक्षण नहीं होगा, वरन् पर्यावरण के भीषण संकट का भी बहुत हद तक समाधान हो जाएगा।237 479 अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन 55 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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