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________________ जाता है, जो पर्यावरण को असन्तुलित करता है, वहीं अहिंसात्मक जीवनशैली से पर्यावरण में मानव की अवांछित छेड़छाड़ घटती जाती है, जिससे पर्यावरण का स्वाभाविक सौन्दर्य (व्यवस्था ) प्रकट होता है और यही पर्यावरण - प्रबन्धन का लक्ष्य है। संक्षेप में कह सकते हैं कि अहिंसा और पर्यावरण-प्रबन्धन में कारण-कार्य सम्बन्ध है । कहा भी गया है 'एतं खु नाणिणो सारं जं न हिंसति किंचणं' अर्थात् ज्ञानी के ज्ञान का सार यही है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । 100 (3) षट्कायिक जीवों की जयणा एवं पर्यावरण- प्रबन्धन प्रायः सभी भारतीय धर्म-दर्शनों ने यह स्वीकार किया है कि अहिंसा किसी जाति, व्यक्ति, वर्ग, देश, काल आदि से बंधी हुई नहीं है, क्योंकि यह सार्वभौमिक है। 101 आचारांग में भी कहा गया है। 'एस धम्मे सुद्धे निच्चे सासए' अर्थात् अहिंसा धर्म शाश्वत् है । 102 अहिंसा के सम्बन्ध में एकमतता होने बावजूद भी अहिंसक व्यवहार के सन्दर्भ में सबमें समानता नहीं है। जैन - परम्परा में अहिंसा के जिस सूक्ष्म स्वरूप का निरूपण हुआ है, वह अन्यत्र देखने में नहीं आता। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण है – षट्कायिक जीवों की विचारधारा, जो पर्यावरण संरक्षण के लिए अत्यन्त उपयुक्त है। - 103 104 जैनदर्शन में जीवन की विस्तृत व्याख्या की गई है। आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रस में जीवन का अस्तित्व है । इसकी पुष्टि हमें उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र आदि अनेक आगमों में मिलती है।' एक ओर जैनाचार्य यह मानते हैं कि षड्जीवनिकाय के आश्रित जीने वाले अनेकानेक प्राणी होते हैं, अतः इन पृथ्वी आदि का दुरुपयोग या विनाश करने से उनका भी विनाश हो जाता है, तो दूसरी ओर वे यह भी मानते हैं कि ये पृथ्वी आदि स्वयं भी जीवन के ही विविध रूप हैं । अतः इनकी हिंसा या अतिदोहन भी जीवन का ही विनाश है। यह अवधारणा भगवान् महावीर से पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ के काल में भी विद्यमान थी । ' 105 कहना होगा कि हमारे चारों ओर व्याप्त संसाधनों में जीवन - सत्ता विद्यमान है, जैसे मृदा, पाषाण, पर्वत, सरिता, सरोवर, ओस, बर्फ, फूल, पत्ती, वृक्ष, घास, गैसें, अंगार, विद्युत् आदि । संक्षेप में कहें, तो जीवन सर्वव्यापी है । 26 106 इस सर्वव्यापी जीवन की दृष्टि के कारण से ही जैन - परम्परा में अहिंसा की व्यापकता एवं गहनता अधिक है। दशवैकालिकसूत्र में साधक के लिए निर्देश है कि वह सिर्फ मनुष्यों की ही नहीं, अपितु षड्जीवनिकाय में से किसी भी जीव की कभी भी विराधना (हिंसा) न करे । ' इतना ही नहीं, आचारांगसूत्र में भी स्पष्ट कहा गया है कि वह मन, वचन एवं काया से न हिंसा करे, न हिंसा कराए एवं न हिंसा का समर्थन ही करे। 107 अहिंसा की इस सूक्ष्म व्याख्या के आधार पर अपने जीवन-यापन के लिए साधक को पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति एवं त्रस में से किसी भी प्रकार के जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। यह निर्देश पर्यावरण-संरक्षण के लिए अत्यन्त हितकर है। Jain Education International जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व - For Personal & Private Use Only 450 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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